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पाण्डवपुराणम् विपुलाद्वाहनचक्षुष्मान्यशस्व्यभिचन्द्रकः । चन्द्राभो मरुदेवश्च प्रसेनजित्त्रयोदशः ॥१०६ चतुदेशस्तु नाभीश एते कुलकरा मताः । हा मा धिक्कारदण्डैश्च स्वपदापनिवारकाः ॥१०७ नाभिना मरुदेवी च संप्राप्ता पाणिपीडनम् । तदेन्द्रेण सुवासार्थमयोध्यापूस्तयोः कृता ॥१०८ इन्द्राज्ञया जिनशेत्रावतरिष्यति वषेणम् । षण्मासे किन्नरेशानो रत्नानां विदधे वरम् ॥१०९ सर्वार्थसिद्धितो देवश्च्युत आषाढकृष्णके । द्वितीयायां तदा गर्भे दधे देवीसुशोधिते ।।११० षट्पञ्चाशत्कुमारीभिः सेव्यमाना मुहुर्मुहुः । गर्भेण शुशुभे सापि मणिनाकरभूमिवत् ।।१११ नवमासेष्वतीतेषु सा सूते स्म सुतं शुभम् । चैत्रकृष्णनवम्यां तु शुक्तिका मौक्तिकं यथा।।११२ जातमात्रः सुरेन्द्राणां कम्पयामास सजिनः । विष्टराणि न को वेत्ति महतां चरितं भुवि॥११३ तजन्मक्षणसंक्षुब्धाः क्षणेन जिष्णवोऽखिलाः। आगत्य जन्मकल्याणं विदधुधृतिमागताः॥११४ इन्द्र ऐरावणारूढो नानासुरसमन्वितः । स्थित्वा नाभ्यालयद्वारि वरिष्ठारिष्टसद्मनि ॥ ११५ शची शुचिसमाकारां प्रेषयामास मानिताम् । जिनं गुणधनं कनं समानेतुं स्वभक्तितः॥११६ जिष्णुजाया गता तत्र प्रच्छन्नाङ्गी जिनेश्वरम् । शयनीये समालोक्य निजाम्बासहितं नता ११७
इसके अनंतर चौदहवें मनु नाभिराजा हुए। इनको कुलकर भी कहते हैं। इन्होंने हा, मा, आर धिक्कार ऐसे शब्दोंका दण्डरूपमें प्रयोग करके लोगोंकी आपत्ति दूर की थी ॥ ३-७॥
[ इन्द्रके द्वारा अयोध्याकी रचना और आदि भगवानका जन्म । ] नाभिराजाने मरुदेवीके साथ विवाह किया। उस समय इन्द्रने उन दोनोंके रहने के लिये अयोध्यानगरीकी रचना की । छह महीनोंके अनंतर आदिभगवान् अवतार लेंगे, यह जानकर इंद्रकी आज्ञासे कुबेरने रत्नोंकी सुन्दर वृष्टि करना प्रारंभ किया ॥८-९॥ आषाढ कृष्ण द्वितीयाके दिन सर्वार्थसिध्दिसे चय करनेवाले अहमिन्द्र देवको, देवियोंसे सुशोधित गर्भमें मरुदेवी माताने धारण किया । छप्पन दिक्कुमारियोंकेद्वारा बारबार सेवित वह माता मरुदेवी भी मणियोंसे सुशोभित खदानकी तरह शोभने लगी । जैसे सीप मोतीको जन्म देती है वैसे नवमास पूर्ण होनेपर शुभ पुत्रको मरुदेवी माताने जन्म दिया । ॥१०-११ । जन्मके अनन्तरही जिनेश्वरके प्रभावसे देवेन्द्रोंके सिंहासन कम्पित हुए । महापुरुषके चरित्रको भूतलमें भला कौन नहीं जानता है ? प्रभुके जन्मसमयमें क्षुब्ध हुए सर्व देवेन्द्रोंने आकर हर्षित हो भगवानका जन्मकल्याण किया। ऐरावत हाथीपर आरूढ होकर अनेक देवोंके साथ इंद्र महाराज नाभिराजाके प्रासादके द्वारमें खडा हुआ और उसने उत्तम प्रसूतिघरमें आदरणीय, निर्मल आकारवाली इन्द्राणीको गुणपूर्ण, सुंदर जिनबालकको लानेके लिये भक्तिसे भेज दिया ॥१२-१५।। प्रसूतिगृहमें इन्द्रपत्नी शची गुप्तरूपसे गई। वहां उसने शय्यापर अपनी माताके साथ जिनेश्वरको देख कर नमस्कार किया। संतोषपूर्ण गुणगौरवकी ओर अपनी बुध्दि लगानेवाली और हर्षयुक्त शरीरवाली इन्द्राणीने विशिष्ट और प्रियगुणोंके धारक जिनेश्वरकी स्तुति की ॥१६-१७॥
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