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द्वितीय पर्व
तुष्टाव तुष्टिसंपुष्टा विशिष्टेष्टगुणं जिनम् । सा शची हर्षपूर्णाङ्गी गुणगौरवसन्मतिः ।। ११८ जिनाम्बां संनियोज्याशु शाम्बरीन्द्रिया तदा । शिशुं मायामयं चान्यं मुक्त्वा जग्राह तं जिनम् सुदुर्लभं तदासाद्य तद्गात्रस्पर्शमाशु सा । जहर्ष हृष्टचेतस्का तदाननविलोकनात् ।। १२० विडौजसः करेधात्तं विडौजः प्राणवल्लभा । प्राचीवोदयशैलस्य शृङ्गे बालार्कमुत्तमम् ॥ १२१ ततः सुरैः समं श्रीमान्सुरेन्द्रः शिशुसंयुतः । अगान्मेरुगिरेः शृङ्गं नानावाद्यकृतोत्सवः ॥ १२२ पाण्डुके पाण्डुकायां स बिडौजा बहुभिः सुरैः । शिलायां विष्टरे बालं रोपयामास तं मुदा ।। १२३ ततः क्षीराब्धितः क्षुब्धादानीतार्जुनसत्कुटैः। सहस्रसंख्यैः सजलैः शक्रो ह्यस्नापयजिनम् ॥ १२४ स्नापयित्वा जिनं स्तुत्वा कृत्वा भूषणभूषितम् । योजयामास तं भक्त्या वृत्रहा वृषभाख्यया १२५ समाप्य जन्मकल्याणं समारोप्य गजोत्तमे । शतयज्वा यजन्बालमाजगाम पुरं वरम् ॥ १२६ नाभिपार्श्वस्थितां चार्वी मरुदेवीं महादराम् । ददर्श मघवा मानी मायानिद्रावियोजिताम्॥ १२७ नत्वा नाभिं ददौ तस्यै बालं बालार्कसंनिभम् । कथां स कथयामास मेरुजां नामजां पुनः । । १२८
[ आदि भगवानका जन्माभिषेक | ] शीघ्रही जिनमाताको मायानिद्रासे युक्त कर तथा उसके ग्रास मायामयी बालकको रखकर इन्द्राणीने बाल - जिनको उठा लिया । उस समय अतिशय दुर्लभ प्रभुके अंगके स्पर्शसे वह इंद्राणी तत्काल हर्षित हुई और प्रभुकी छविके दर्शनसे उसका मन आनंदित हुआ ।। १८-१९ ॥ उदयाचलके शिखरपर उत्तम बालसूर्यको स्थापित करनेवाली पूर्व दिशाके समान इन्द्रकी प्राणवल्लभा इन्द्राणीने इन्द्रके हाथोंमें जिनबालकको स्थापित किया । ऐश्वर्यशाली, नाना वाद्योंको बजवाकर जिसने उत्सव किया है ऐसा इन्द्र जिनवालकको लेकर देवोंके साथ मेरुगिरिके शिखरपर गया। पांडुकवनमें पांडुकशिलाके ऊपर रखे हुए सिंहासनपर इन्द्र आनन्दसे जिनबालकको विराजमान किया ॥ २० -२३ ॥ तदनंतर क्षुब्ध हुए क्षीरसमुद्र से लाये गये जलसे पूर्ण, हजार चांदी के कलशोंसे इन्द्रने जिनेश्वरका अभिषेक किया अनन्तर उनको आभूषणोंसे अलंकृत कर उसने भक्तिसे प्रभुको ' वृषभ ' नामसे संयुक्त किया अर्थात् इन्द्रने प्रभुको वृषभ नाम दिया । इस प्रकार जन्मकल्याण समाप्त करके प्रभुकी पूजा करनेवाला इन्द्र ऐरावत हाथीपर उनको आरूढ कर सुन्दर अयोध्या नगरमें आया ॥ २४-२६ || महाराज नाभिराजके पास स्थित तथा मायानिद्रासे विमुक्त सुंदरी महारानी मरुदेवीको गौरवशाली इन्द्रने बडे आदरपूर्वक देखा । इन्द्र महाराज नाभिराजको नमस्कार किया और बालसूर्यके समान श्रीजिनबालकको माताकी गोदमें दिया । अनंतर उसने मेरुपर्वतपर अभिषेकपूर्वक नामकरणविधि की कथा सुनाई । हर्षयुक्त इन्द्रने अनेक इंद्राणियोंके साथ सैकडों नटनटियोंको लेकर सविस्तर सुंदर रचनायुक्त तथा हाव
१. स. करे धते
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