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________________ द्वितीयं पर्व त्वमपि प्राप्य वीरेशं निशम्यागमसत्कथाम् । भवितात्र महापद्मः प्रथमस्तीर्थनायकः ॥९६ अत एव पुराणार्थ पावनं त्वत्प्रसादतः । श्रोष्यामः सिद्धये सत्यं गुणिसंगाद् गुणो भवेत्।।९७ अगण्यगुणगौरत्वं वात्सल्यं जिनशासने । साधर्मिकमहास्नेहो विद्यते भूपते त्वयि ॥९८ । त्वत्समो न गुणी भूपो दृष्टो नैव च दृश्यते । गुणज्ञता जगत्पूज्या गुणी सर्वत्र मान्यते ॥९९ इति प्रशंसयामासु पालं ते महर्षयः । मणिवद् गुणतो मान्यो महतां लघुरप्यहो ॥१०० ततो गम्भीरया वाचा वाग्मी विद्वज्जनैर्नुतः गौतमो गणभृद्गम्यो जगाद जगतां गुरुः॥१०१ साधु साधु त्वया पृष्टं श्रेणिक श्रुतिकोविद । व्याख्यास्यामि क्षितौ ख्यातं यत्पृष्टं तत्समासतः १०२ भरतेऽत्र महीपाल भोगभूमिस्थितिक्षये । पल्यस्य चाष्टमे भागे तृतीयस्याप्यनेहसः ।। १०३ उध्दते मनवो जाताश्चतुर्दश दिगीश्वराः । अनेककुलकर्तारः कलाकलापकोविदाः ॥१०४ प्रतिश्रुत्प्रथमस्तत्र सन्मतिद्धितीयो मतः । क्षेमकरः क्षेमधरः सीम्नः करधरौ स्मृता॥१०५ देशावधिनामक महाज्ञान प्राप्त हुआ था । श्रीकृष्णने नेमिप्रभुकी सभामें त्रिषष्टि-शलका-पुण्यपुरुपोंके चरित्र सुनकर शीघ्रही तीर्थकरप्रकृतिका बंध कर लिया था। अब वे भविष्यकालमें तीर्थकर होंगे । हे श्रेणिक, श्रीवीर भगवान् को प्राप्त कर और आगमकी शुभकथा सुनकर आप भी इस भरतक्षेत्रमें महापद्म नामके पहिले तीर्थनायक होंगे। इसलिये तुम्हारे प्रसादसे मोक्षप्राप्तिके लिये हम पवित्र पुराणार्थ सुनेंगे। गुणियोंकी संगतिसे गुण उत्पन्न होते हैं यह सत्य है। हे राजन् आपमें गणनारहित गुणोंका प्राधान्य है अर्थात् आपमें असंख्यात प्रधान गुण निवास करते हैं। आपमें जिनशासनका वात्सल्य है । साधर्मियोंके प्रति महास्नेह है । हे राजन्, आपके समान गुणवान् राजा न देखा गया है और न दिखताही है, क्योंकि आपमें विश्ववंद्य गुणज्ञता है अर्थात् आप गुणोंको जाननवाले हैं । गुणी सर्वत्र पूज्य होता है । इस प्रकार उन महर्षियोंने महाराज श्रेणिक की प्रशंसा की; जैसे छोटासाभी मणि गुणोंसे बडोंको भी मान्य होता है, वैसे हे राजन् आप लघु होते हुये भी गुणोंसे बडोंको मान्य हुए हैं ॥ ९३-१०० ॥ इसके अनंतर महान् वक्ता विद्वज्जनोंके द्वारा स्तुत्य, भव्यजन रक्षक और जगत्के गुरु गौतम गणधर गंभीर वाणीसे इस प्रकार कहने लगे। हे शास्त्रनिपुण श्रेणिक, तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है । जो तुमने पूछा है उस जगत्प्रसिद्ध बातका मैं संक्षेपसे व्याख्यान करूंगा ॥१०१-१०२॥ [गोतम गणधर भोगभूमिके कालका वर्णन करते हैं । ] हे राजन्, इस भरतक्षत्रमें भोगभूमिकी स्थिति नष्ट होनेके समय तृतीयकालमें पल्यका आठवां भाग शेष रहनेपर अनेक कुलोंके कर्ता, कलासमूहके ज्ञाता, दश दिशाओंके स्वामी चौदह मनु क्रमसे उत्पन्न हुए । उनमें पहिले मनु प्रतिश्रुत्, दूसरे सन्मति, तीसरे क्षेमंकर, चौथे क्षेमन्धर, इस क्रमसे सीमंकर, सीमन्धर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव तथा तेरहवे मनु प्रसेनजित् हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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