SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाण्डवपुराणम् समीपस्थाः सुशिष्याश्च श्रुत्वा तं प्रश्नमुत्तमम् । हर्षोत्कण्ठितसर्वाङ्गा अजायन्ताप्तसत्क्षणाः।।८५ अभाषन्त तदा सवे ऋषयः सुरसत्तमाः । तत्पुराणं प्रसिद्धार्थमिच्छन्तः श्रोतुमञ्जसा ॥८६ राजन्मगधनीवृत्य नाशिताशेषशात्रव । सढुष्टे मिष्टवाक्यौघ भविष्यत्तीर्थकारक ॥८७ अनुयोगः कृतो यस्तु त्वया सदृष्टिचेतसा। सोऽस्माकं प्रीतिदः पुण्यपाकोद्भूतिसुकारकः ।।८८ अस्माकं मतमेतद्धि पुराणार्थोद्यतात्मनाम् । यत्पुराणनराणां भो पुराणं श्रूयते शुभम् ।।८९ अस्माकं संशयध्वान्तध्वंसाइनायसे नृप । गुणगौरवदानेन गुरूणां त्वं गुरूयसे ।।९० हितकृच्च हितार्थानां प्रश्नावं सर्वदेहिनाम् । मिथ्यारोगविनाशेन सदा वैद्यायसे स्फुटम्॥९१ पाण्डवानां पुराणार्थ श्रोतुकामा वयं पुरा । स एव भवता पृष्टः केषां हर्षाय नो भवेत् ।।९२ पुराणश्रवणाच्छ्रेयः श्रूयते जिनशासने । त्वंत्तस्तच्छ्रवणं नूनं भविता भवनाशनम् ॥९३ भरताद्याः पुरा जाता भारते भरतेश्वराः । पुराणश्रवणात्प्राप्ता देशावधिमहाविदम् ॥९४ विष्णुर्नेमिसभायां च पुराणं पुण्यदेहिनाम् । आकाशु बबन्धात्र तीर्थकृत्त्वं सुतीर्थकृत् ॥९५ गुणोंकी संपत्ति जिनको प्राप्त हुई है अर्थात् असंख्यात गुणोंको धारण करनेवाले श्रीगौतम गणधर अपने तेजसे मानो दूसरा सिंहासन ही रचा है ऐसे शोभने लगे । श्रीगौतम-गणधरके समीप रहनेवाले शिष्योंने श्रेणिकका उत्तम प्रश्न सुना । उससे उनका सर्वाङ्ग हर्षसे रोमाञ्चित हुआ । तथा अपना अभिप्राय व्यक्त करनेके लिये उनको योग्य अवसर मिला । पाण्डवोंके पुराणप्रसिद्ध अर्थको परमार्थरूपसे सुननेकी इच्छा करनेवाले सर्व ऋषि और श्रेष्ठ देव इसप्रकार कहने लगे ॥ ८४८६ ॥ हे राजन्, हे मगधाधिपते, आपने सब शत्रु नष्ट किये हैं। आप सम्यग्दृष्टि, मिष्टभाषी और भविष्यकालमें तीर्थंकर होनेवाले हैं । हे राजन्, सम्यादर्शनयुक्त हृदयसे जो प्रश्न किया है वह अतिशय आनंदित करनेवाला है और पुण्यके फलको प्रगट करनेवाला है। हे राजन्, पुराणार्थ सुननेको हम उत्कण्ठित हुए हैं। अब हमारी त्रिषष्टिलक्षण--पुण्यपुरुषोंका शुभ पुराण सुननकी आकांक्षा है। राजन् , अब हमारा संशयान्धकार नष्ट करनेके लिये आप सूर्यसदृश हैं। आप गुणोंका गौरव करनेवाले होनेसे गुरुओंके भी गुरु हैं। हितकर . पदार्थके विषयमें आपका प्रश्न होनेसे आप सर्व प्राणियोंका हित करनेवाले हैं। तथा मिथ्यात्वरोगका नाश करनेसे आप सदा वैदशके समान प्रतीत होते हैं। पाण्डवोंके पुराणका अर्थ हम सुनना चाहते थे अर्थात् आपके प्रश्नके पूर्व ही पाण्डवोंके पुराणार्थ-श्रवणकी हमारी इच्छा हुई थी और आपने वही पुराणार्थ-श्रवण करनेका प्रश्न गणनायकसे पूछा । अतः आपका यह प्रश्न किसको हर्षयुक्त नहीं करेगा ? ॥ ८७-९२ ॥ हमने जिनशासनमें, पुराणश्रवणसे हितप्राप्ति होती है, ऐसा सुना हैं । अब आपके निमित्तसे पुराणका श्रवण हमारे संसारनाशका हेतु बन जायगा । इस भरतक्षेत्रमें पूर्वकालमें भरतादिक संपूर्ण भरतके अधिपति हुए हैं। पुराणके श्रवणसे उनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy