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द्वितीय पर्व शिलायां वापनं बीजरोहणार्थ वरं न हि । तथा परपुराणार्थो नाथ नार्थी भवेल्लघु ॥७३ गाङ्गेयस्य च माहात्म्यं गाङ्गेयसमसत्प्रभम् । द्रोणाचार्यबलाख्यानं ख्याहि भीमपराक्रमम्॥७४ हरिवंशसमुत्पत्तिं द्वारावतीनिवेशनम् । हरेनमेबेलाख्यानं जरासन्धविनाशनम् ।।७५ कुरूणां पाण्डुपुत्राणां वैरं वैरस्य कारणम् । विदेशगमनं पाण्डुपुत्राणां पुनरागमम् ॥७६ द्रौपदीहरणं चेवावाचीदिनथुरास्थितिम् । विष्णोश्व मरणे तेषामागर्म नेमिसंनिधौ ॥७७ अटनं झटिति प्रायः पूर्वसर्वभवोद्भवम् । वर्णनं द्रौपदीपञ्चभर्तृलाञ्छनकालिकाम् ।।७८ दीक्षणं पाण्डुपुत्राणां शत्रुजयसमागमम् । परीषहजयाख्यानं त्रयाणां केवलोद्गमम् ॥७९ निर्वाणार्थपथप्राप्तिं पञ्चानुत्तरवासिताम् । द्वयोरेतत्समाख्याहि सर्व सार्व शिवोद्यत ॥८० इतीमां नृपतेः प्रश्नमाला संशीतिनाशिनीम् । सर्वजीवहितोद्युक्तां श्रुत्वा प्रोवाच सद्गणी ।।८१ तद्भाषाजलदो भव्यसस्यान्सिचंश्च नर्तयन् । जजम्भे जिततापार्तिः परमः शिष्यबर्हिणः ।।८२ तद्दन्तज्योत्स्नया सर्वान्सभ्यान्सच्छुभसंगतान्।क्षालयन्स चकास्ति स्म क्षालिताशेषकिल्बिषः।।८३ तेजसा सोऽपरं पीठं कुवेन्सत्तेजसा वृतः । चकासे चेतनारूढः प्ररूढगुणसंपदः ॥८४
समान है। हे नाथ, परपुराणोंका यह सवं अभिप्राय अर्थवान् नहीं है अर्थात् निष्प्रयोजन अनर्थका हेतु है ।। ७२-७३ ॥
[ श्रेणिक राजाने गौतम गणवरसे जिन विषयोंमें प्रश्न पूछे उनका विवरण । ] हे गणाधीश, गांगेयका सुवर्णके समान उज्ज्वल माहात्म्य कहिये । द्रोणाचार्यका बल और भीमका पराक्रम कहिये । हरिवंशकी उत्पत्ति, द्वारावतीकी रचना, श्रीकृष्ण और नेमिप्रभुका बलवर्णन तथा जरासंघका युद्धमें नाश, कौरव और पाण्डवोंका वैर तथा उसका कारण, पाण्डुपुत्रोंका विदेशमें गमन तथा पुनरागमन; द्रौपदीहरण, दक्षिण दिशाकी मथुरामें पांडवोंका वास, श्रीकृष्णके मरणसे पाण्डवोंका बनमें आगमन, तदनंतर नेमिनाथ स्वामीके समीप आना, उनसे अपने पूर्वभवोंका श्रवण, द्रौपदीके पांच पतियोंकी पत्नी होनेरूप अपवादके कारणका वर्णन, पांडवोंका दीक्षा लेकर शत्रुजय पर्वतपर आगमन, परीषहजयका वर्णन और तीन पाण्डवोंको केवलज्ञानका होना और निर्वाण प्राप्त करना, नकुल और सहदेवका पंचानुत्तरविमानमें उत्पन्न होना, हे लोकहित करनेवाले तथा मोक्षोद्यत प्रभो, यह सर्व मुझे कहिये । इस प्रकारकी राजाकी प्रश्नमाला सुनकर गौतम गणधर संशय दूर करनेवाली, सर्व जीवोंका हित करनेमें उद्युक्त ऐसी वाणी बोलने लगे ॥ ७४--८१ ॥ उनका उत्तम उपदेशरूपी मेघ भव्यजनरूपी धान्योंको सींचता हुआ, शिष्यरूपी मारोंको नचाता हुआ, दुःखरूपी तापको नष्ट करके वृद्धिंगत हुआ। उस समय वे पुण्यवान् अपने दांतोंकी शुभ्र किरणोंसे संपूर्ण सभ्यजनोंको स्नान कराते तथा संपूर्ण पापोंको धोते हुए शोभने लगे ॥ ८२-८३ ॥ उत्कृष्ट तेजोमंडलसे घिरे हुए, मतिज्ञानादिक चार ज्ञानोंके धारक,
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