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________________ पाण्डवपुराणम् वायुनो जभिता कुन्ती लेमे भीमं भयातिगम् । मघोना मैथुनं प्राप्तार्जुनं चार्जुनसत्प्रभम् ॥६४ मद्री सन्मुद्रया युक्ता याचिनेयसुरश्रिता । नकुलं सहदेवं च सा लेमे सद्गुणौ सुतौ ।।६५ अण्डाथ पाण्डवाः स्वामिन् संबोभुवति भूतले । कथं सत्पुरुषाणां च समुत्पत्तिर्वदेशी ॥६६ भीमो महाबली बुद्धः प्रज्ञापारमितः कथम् । दशमान्यनमाभुङ्क्ते स्वल्पाहारो महान्यतः।।६७ गङ्गायाः सरितो जातो गाङ्गेयः कथमुच्यते । यदि नद्या मनुष्याणामुत्पत्तिः किं नराम्बया||६८ द्रौपदी रूपभूषाढ्या साध्वी शीलवतान्विता । पश्चापि पाण्डवान्भातृन्कथं सेवेत सेवनी ॥६९ यदा युधिष्ठिरासक्ता सान्यान्सर्वाश्च पाण्डवान् । देवरान्सुतसंतुल्यान्कथं भुङ्क्ते पुनः शुभा।।७० यदान्यपाण्डवासक्ता पुनज्येष्ठं युधिष्ठिरम् । पितृप्रायं कथं नित्यं भुङ्क्ते साहो विडम्बना।।७१ एतत्सर्व मुने भाति सिकतापीडनोपमम् । तैलाथं च घृतार्थ वा यथा सलिलमन्थनम् ।।७२ दुआ ॥ ६२-६४ ॥ उत्तम मुद्रावाली मद्रीने अश्विनीकुमार देवका आश्रय लिया अर्थात् उसके साथ उसने संभोग किया जिससे उसे नकुल और सहदेव ये दो सद्गुणी पुत्र प्राप्त हुए । इस तरह ये पांचों पाण्डव कुण्ड हुए अर्थात् कुन्ती और मद्रीका पति पण्डुराज विद्यमान होते हुए भी धर्मराजादिकोंकी उत्पत्ति यम, वायु, इन्द्र और अश्विनीकुमारसे हुई है अर्थात् सधवा अवस्था होनेपर भी जारसे पाण्डवोंकी उत्पत्ति हुई, अतः वे इस भूतलपर ' कुण्ड' ( अमृते जारजः कुण्डः ) कहलाये । आपही कहिए कि सत्पुरुषोंकी इस तरह अयोग्य उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? ॥६५-६६॥ भीम महाबलवान् और समझदार था । वह बुद्धिका समुद्र था। उसका आहार अल्प था । परन्तु वह प्रति दिन दस मन प्रमाण अन्न खाता था, यह किंवदन्ती कैसे फैली ? गंगानदीसे गाङ्गेय उत्पन्न हुआ ऐसा क्यों कहा जाता है ? यदि मनुष्योंकी उत्पत्ति नदीसे होने लगी तो मनुष्यत्रीसे क्या प्रयोजन है अर्थात् मातापिताके बिना पुत्र कन्यादिक होने लगेंगे ॥ ६७-६८ ॥ द्रौपदी सौन्दर्य व अलंकारोंसे भूषित थी। वह पतिव्रता अर्थात् शीलव्रतधारक थी। वह युधिष्ठिर आदि पांच पाण्डवोंके साथ कैसे कामसेवन करेगी ? जब वह युधिष्ठिरमें आसक्त होती थी तब अन्य सब पाण्डव उसके छोटे देवर बन चुके और छोटे देवर पुत्रके समान होते हैं। उनके साथ वह माध्वी कैसे सुरतानुभव करेगी ? तथा जब वह अन्य पाण्डवोंमें आसक्त होती है तब ज्येष्ट युधिष्ठिर उसके पिताके समान हुए उनके साथ वह हमेशा सुरतसुख कैसे भोगती थी ? ओह ! यह सब वर्णन साध्वियोंकी विडम्बना है ॥ ६९-७१ ॥ यह सब कथन हे प्रभो ! तेलके लिये वालूको पेलनके समान है तथा घीके लिये जलमंथन करनेके समान है। अंकुरके लिये शिलापर बीज बोनेके स वायुना संगता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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