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पाण्डवपुराणम् रथिनो रथचक्रेण चक्रेणालंकृतेन च। वाजिवारनिबद्धन संभेजू राजमन्दिरम् ॥६ याप्ययानस्थिताः केचित्सौरभेयाश्रिताः परे । क्रमेलकसमारूढाः संप्रापुस्तद्गहाङ्गणम् ।।७ खगखेटकसद्धस्ताः कुन्तकोटिकराः परे। केचिच्छक्तिसमासक्ताः पत्तयस्तं प्रपेदिरे ॥८ नर्तक्यो नतेनोधुक्ता नटपेटकपूरिताः। नरीनृतति सद्वक्त्रास्तत्पुरः सस्मयाः पराः ॥९ इत्थं समग्रसामग्न्या संगतोऽद्भुतविक्रमः। रेजे राजा रमाधीशा राजराज इवापरः ॥१० निर्भयेनाभयेनापि वारिषेणसुतेन च । चेलिन्या सह संतस्थे जिनं वन्दितुमीश्वरः ॥११ दन्तावलादलोपेतः संप्राप्य जिनसंनिधिम् । समुत्तीर्य सुवेगेन विवेश समवसृतिम् ॥१२ दर्श दर्श दयाधीशं नाम नाम स तत्पदम् । स्थायं स्थायं स्थिरं स्थाने शुश्राव श्रेयसः श्रुतिम्।।१३ समुत्थाय ततो राजा गोतमं गौतमं गुरुम् । गुणाग्रण्यं प्रवन्द्यासावाचष्टे स्म धराधवः ॥१४ भगवन्नमितानेकनराधिप महामुने । आलोकं लोकितार्थस्ते ज्ञानालोको विलोकते ॥१५
हाथियों को अंबारियोंसे सजाया। जिनमें घोडे जोते गये हैं, जो सुंदर पहियों से शोभायमान हैं ऐसे रथोंपर आरूढ होकर रथी वीर राजमंदिरमें आये। कोई लोग पालकियोंपर, कोई बैलपर और कोई ऊँटपर आरूढ होकर राजमंदिर के आंगनमें आये। कोई वीर अपने हाथमें तरवार और ढाल लेकर, कोई अपने हाथमें भाले लेकर और कोई हाथमें शक्ति नामक शस्त्र लेकर पैदलही वहां पहुंचे। सुंदर मुखवाला, नृत्य करने में उत्सुक ऐसा नर्तकीसमूह नटोंसे युक्त हो, श्रेणिक महाराजाके समक्ष सगर्व बारबार नृत्य करता था। अद्भुत पराक्रमी और लक्ष्मीपति महाराजा श्रेणिक इस प्रकारकी सामग्रीसे युक्त होकर मानो दूसरे कुबेरके समान शोभायमान दीखने लगे। चेलना रानीसहित श्रेणिक महाराज, निर्भय अभयकुमार और वारिषेण इन दो पुत्रोंके साथ वीरजिनको वंदना करनेके लिये चले। 'चतुरंग सेनाके साथ महाराज श्रेणिक प्रभुके पास पहुंचे और उनने हाथ से उतरकर शीघ्रही समवसरणमें प्रवेश किया ॥२-१२॥ उनने कृपानाथ वीर प्रभुकी छविका बारबार अवलोकन किया। उनके चरणों की बारबार वन्दना की और बहुत समयतक मनुष्योंकी सभामें बैठकर प्रभुके मुखसे कल्याणकारी उपदेश सुना ॥१३॥ पृथ्वीपति श्रेणिकमहाराजने खड़े होकर उत्कृष्ट वाणीके धारक गुणोंसे श्रेष्ठ गौतम गणधरकी वन्दना कर इस प्रकार कहना प्रारंभ किया। " हे भगवन् , अनेक भूपाल आपकी वन्दना करते रहे हैं। हे महामुने, आपका ज्ञानरूपी प्रकाश लोकान्तपर्यन्त संपूर्ण पदार्थोंको प्रकाशित कर रहा है। हे महाज्ञानिन् ,आपके लिये कोई भी वस्तुसमूह अगम्य अज्ञेय नहीं है। हे यते, आपके ज्ञानसमुद्रमें यह सर्व जगत् जलबिन्दुके समान प्रतीत हो रहा है। हे नाथ, सर्व लोकको प्रकाशित करनेवाली विद्या सदा आपके अधीन है, अर्थात् आप उसके स्वामी हैं। उस विद्यामें-ज्ञान में यह जगत् सदा गायके खुरसमान ज्ञात हो रहा है। हे प्रभो, मनःपर्ययज्ञानके धारक, बीजबुद्धिके स्वामी, महर्षि, आपकी सब ऋद्धियाँ सर्वदा वर्धमान हो रही हैं।
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