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पशनिशं पर्व
५१३ ताडग्विधोऽहं प्रगुणैर्जिनेशं स्तुवंश्च सद्भिः सकलैः परैश्च । क्षाम्यः सदा कोपगणं विहाय बाल्ये जने को हि हितं न कुर्यात् ॥१६७
• [कविप्रशस्तिः ] . श्रीमूलसङ्घजनि पद्मनन्दी तत्पट्टधारी सकलादिकीर्तिः । कीर्तिः कृता येन च मर्त्यलोके शास्त्रार्थकीं सकलापि चित्रा ॥१६८ भुवनकीर्तिरभूद्धवनाद्भुतैर्भवनभासनचारुमतिः स्तुतः । वरतपश्चरणोद्यतमानसो भवभयाहिखगेट् क्षितिवत्क्षमी ॥१६९ चिद्रूपवेत्ता चतुरश्चिरन्तनश्चिद्भषणश्चर्चितपादपङ्कजः । परिश्च चन्द्रादिचयश्चिनोतु वै चारित्रशुद्धिं खलु नः प्रसिद्धाम् ॥१७० विजयकीर्तियतिर्मुदितात्मको जितततान्यमतः सुगतैः स्तुतः । अवतु जैनमतं सुमतो मतो नृपतिभिर्भवतो भवतो विभुः ॥१७१ पढे तस्य गुणाम्बुधिव्रतधरो धीमान्गरीयान्वरः श्रीमच्छ्रीशुभचन्द्र एष विदितो वादीभसिंहो महान् ।
ऐसे गुणोंसे जिनेश्वरकी-नेमिप्रभुकी स्तुति करनेवाला अज्ञानी मैं कोपको छोडकर आपसे क्षमा करने योग्य हूं। योग्यही है, कि अज्ञ जनमें कौन हित नहीं करेगा ॥ १६७ ॥
[कविप्रशस्ति । श्रीमूलसंघमें पद्मनंदि नामक आचार्य हुए। उनके पट्टपर सकलकीर्ति भट्टारक आरूढ हुए। उन्होंने इस मनुष्यलोकमें शास्त्रार्थ करनेवाली नानाविध और पूर्ण ऐसी कीर्ति की है। अर्थात् प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगके अनेक ग्रंथ रचकर अपनी कीर्ति शास्त्रार्थकी की है ॥ १६८ ॥ भुवनमें आश्चर्ययुक्त भुवनकीर्ति नामक आचार्य जो कि जगतको प्रकाशित करनेवाली सुंदर बुद्धिके धारक थे, विद्वानोंसे प्रशंसे गये हैं। ये भुवनकीर्ति उत्तम तपश्चरणमें हमेशा उद्युक्तचित्तवाले थे, संसारभयरूपी सर्पको गरुड थे और पृथ्वीके समान क्षमावान् थे ॥ १६९ ।। इनके अनंतर चैतन्यके स्वरूपको जाननेवाले, चतुर, कपूर, चंदन आदि द्रव्योंके-समहसे जिनके चरणकमल पूजे गये हैं ऐसे चिरन्तन-वृद्ध, अनुभवी चिद्भषणसूरि-ज्ञानभूषणसूरि हमारी प्रसिद्ध चारित्र-शुद्धिकी वृद्धि करे ॥ १७० ॥ जिनका आत्मा हमेशा आनंदित है, जिन्होंने विस्तीर्ण अन्यमतोंको जीता है, विद्वानोंने जिनकी स्तुति की है, जो नृपतियोंको मान्य हैं, जो उत्तम मतके धारक हैं अर्थात् स्याद्वादी हैं वे विजयकीर्ति प्रभु (भट्टारक) जैनमतकी तथा आपकी भवसे-संसारसे रक्षा करें ॥ १७१ ॥ उन विजयकीर्तिके पट्टपर गुणसमुद्र, व्रतधारक, ज्ञानवान्, महान्, श्रेष्ठ, श्रीमान्, महावादिरूपी हाथियोंको सिंह ऐसा यह
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