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पाण्डवपुराणम् किं प्रार्थयामि भुवि तान्वरसाधुवर्गाञ्जल्पन्ति ये परगुणानगुणान्न दैवात् । दोषेऽपि ये न ददते हितकारिदण्डं, ते तुष्टभावनिवहा भुवने विभान्ति ॥१६१ निष्कास्य दोषकणिकां भुवि दर्शयन्ति, प्रादाय दोषमखिलं परिजल्पयन्ति । अन्यस्य दोषकथने च सदा विनिद्रा, ये प्रार्थयामि खलु तानसतः प्रबुद्धान् ॥१६२
कृत्वा पवित्रं परमं पुराणं तेषां च नो राज्यसुखं लिलिप्सुः । अहं परं मुक्तिपदं प्रयाचे त्वद्भक्तितः सर्वमिदं फलि स्यात् ॥१६३ यदत्र सल्लक्षणयुक्तिहीनं छन्दःस्वलंकारविरुद्धमेव ।। शोध्यं बुधैस्तत्खलु शुद्धभावाः परोपकाराय बुधा यतन्ते ॥१६४ छन्दांस्यलङ्कारगणान्न वेद्मि काव्यानि शास्त्राणि पराण्यहं च । जैनेन्द्रकालापकदेवनाथसच्छाकटादीनि च लक्षणानि ॥१६५ . त्रैलोक्यसारादिसुलोकग्रन्थान्सद्गोमटादीन्वरजीवहतून् । सत्तर्कशास्त्राष्टसहस्रवीशाने नो वेम्यहं मोहवशीकृतान्तः ॥१६६
दीखनेपरभी हितकारक दण्डभी-शासन भी नहीं करते हैं ऐसे वे सज्जन इस भूतलमें शोभते हैं । ॥ १६१॥ जो अन्य जनोंकी दोष कणिकाको देखते हैं। सब दोष ग्रहण करके जगतमें कहते फिरत हैं। दूसरों के दोष कथन में जो हमेशा निद्रारहित होते हैं उन दुष्ट विद्वानोंको मैं निश्चयसे प्रार्थना करूंगा ॥१६२।। उन पाण्डवोंका पवित्र पुराण रचकर मैं राज्य सुखको नहीं चाहता हूं। परंतु मैं केवल मुतिपदकी याचना करता हूं। क्यों कि भक्ति से सब सफल होता है अर्थात् भक्तिसे चाहा हुआ पदार्थ मिलता है ॥१६३।। मैंने रचे हुए इस पाण्डवपुराणमें जो उत्तम लक्षणरहित और रचनाहीन छन्द रचा गया होगा। जिसमें व्याकरण और छन्दःशास्त्रकी अपेक्षा दोष रहे होंगे। उपमादिक अलंकारके विरुद्धभी रचना की गयी होगी। उसका संशोधन निर्मलबुद्धिवाले विद्वान् करें । क्यों कि सुज्ञलोक परोपकारके लिये प्रयत्न करते हैं। काव्य और अन्यशास्त्रोंकाभी मुझे बोव नहीं है। जैनेन्द्रव्याकरण, कालापव्याकरण (कांतत्र व्याकरण ), देवनाथव्याकरण- इन्द्रव्याकरण और शाकटायन-व्याकरण आदि व्याकरणोंको मैं नहीं जानता हूं ॥ १६४-१६५ ॥ त्रैलोक्यसारादिक लोकवर्णनवाले ग्रंथ, गोमट सारादिक जीवके हेतुभूत ग्रंथ -जीवका स्वरूप बतानेवाले ग्रंथ, मैं नहीं जानता हूं तथा उत्तम तर्कशास्त्र ऐसे अष्टसहस्री आदिक ग्रंथोंको मैं नहीं जानता हूं, क्यों कि मेरा मन मोहके वश हुआ है अज्ञ है ॥ १६६ ॥ इस तरहसे संपूर्ण, उत्तम, प्रशस्त और प्रकर्षयुक्त
१ 'मतर्कशास्त्राष्टसहस्रकादीन् ' इति पाठः स्यादत्र ।
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