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पञ्चविंशं पर्व
वेदं चरित्रं क्व मम प्रबोधः श्रीगौतमाद्यैः कथितं विशालम् । आच्छादनै छादित सर्वभागो ज्ञानस्य सोऽहं प्रयते तथापि ॥ १५५ बालोऽन्तरीक्षगणनं न करोति किं वा, भेकोऽपि सिन्धुपयसां गणनां न वा किम् । रङ्कः स्ववीर्यनिचयं विवृणोति किं न, सोऽहं तथा वरकथां कथयामि कांचित् ॥ संप्रार्थयामि नितरां बरसाधुसिंहान्, सच्छास्त्रदूषणहरान्परतोषदातॄन् । किं प्रार्थयामि नितरामसतः प्रयत्नाच्छास्त्रस्य दुषणकरान्परदोषदांतॄन् ॥ १५७ ये साधवः क्षितितले परकार्यरक्ता, दोषालयेऽपि विकृतिं न भजन्ति सर्गात् । नक्षत्रवंशविभवेऽपि किरन्ति तोषं, शुभ्रांशवो निजकरैः परितर्पयन्ति ॥ १५८ ये दुष्टतामससमूहगता विमार्गे, शुभ्रांशुमार्गगहने कृतनित्यचित्ताः । पङ्काबलिप्तनिजदेहभरा भृशं वै तेऽसाधवोऽन्धतमसं प्रकिरन्ति लोके ॥ १५९ सन्तोन्तो ये भुवि जाताः स्थाने स्थाने तत्खलु कृत्यम् । नो चेषां कः परिवेत्ता काचाभावे रत्नमिवात्र || १६०
[ कविकी नम्रता ] श्रीगौतमादि ऋषियों का कहा हुआ यह विशाल पाण्डव - चरित्र कहां और मेरा ज्ञान कहां । मेरे ज्ञानके अंश तो ज्ञानावरणोंसे आच्छादित हुए हैं तथापि मैंने इसकी रचना प्रयत्न किया हैं ॥ १५५ ॥ अथवा क्या बालक आकाशकी गणना नहीं करता है ? क्या मेंढक भी समुद्रके पानीकी गणना नहीं करता है ? क्या दुर्बल मनुष्य भी अपने सामर्थ्य प्रगट नहीं करता है ? वैसे मैंने भी यह सुंदर कथा संक्षेपसे कही है ॥ १५६ ॥ ? जो उत्तमशास्त्रोंमेंसे दोषोंको हटाते हैं। जो अन्यजनों को आनंदप्रदान करते हैं ऐसे उत्तम माधुसिंहोंकी मैं अतिशय प्रार्थना करता हूं । परंतु जो प्रयत्नसे शास्त्रको दूषित करते हैं तथा लोगोंको दोष देते हैं उन दुष्टोंकी क्यों प्रार्थना करूं ? प्रार्थना करने से भी वे प्रसन्न नहीं होते हैं ॥ १५७ ॥ जो साधुगण इस भूतलपर हमेशा परकार्य करने में अनुरक्त होते हैं । वे दोषोंके घर ऐसे मनुष्यपरभी स्वभावसे विकारयुक्त नहीं होते हैं। योग्यही है, कि चंद्र नक्षत्रसमूहका वैभव होनेपर भी उनके ऊपर संतोष शांति की वर्षा करते हैं और अपनी किरणोंसे उनको सुखी करते हैं ॥ १५८ ॥ जो असत्पुरुष हैं वे दुष्ट तामससमूहमें- दुष्ट दुर्जनसमूहमें रहना पसंद करते हैं, खोटे मार्ग में उनका मन हमेशा तत्पर होता है और शुभ्रांशुमार्ग में निर्मल मार्गके संकट में वे मनसे प्रवृत्त होते हैं । उनके देह पापसे अत्यंत लिप्त होते हैं, ऐसे दुष्ट पुरुष जगतमें घन अज्ञान को फैलाते हैं ॥ १५९ ॥ इस भूतलमें जो सज्जन और दुर्जन उत्पन्न हुए हैं उनके कृत्य स्थान स्थान में दीखते हैं । यदि उनके कार्य नहीं दीखते तो उनको कौन जानता? जैसे काचके अभाव में यहां रत्न नहीं जाना जाता ॥ १६० ॥ मैं उन उत्तम साधुसमूहों को क्या प्रार्थना करू जो दूसरों के गुणों कीही प्रशंसा करते हैं । दैवयोग से दोष
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