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पाण्डवपुराणम्
ज्वलन्ति ते तदा वीक्ष्य वपूंषि वरपाण्डवाः । विध्यापनकृते दध्युस्तस्य ध्यानजलं हृदि ॥ ६८ जिनसिद्धसुसाध्विद्धसद्धर्मवर मङ्गलम् । चतुर्लोकोत्तमांश्चित्ते दधुस्तच्छरणानि च ॥६९ ज्वलते ज्वलनो देहाञ्ज्वालयन् विपुलात्मकः । नात्मनः सत्कुटीर्यद्वन्न नभस्तत्समाश्रितम् ॥ मूर्तास्तु पावका मूर्त्ताज्वालयन्त्यङ्गसंचयान् । न चात्मनो यथास्माकं सदृशाः सदृशान्पराः।। शुद्धः सिद्धः प्रबुद्ध निराकारो निरञ्जनः । उपयोगमयो ह्यात्मा ज्ञाता द्रष्टा निरत्ययः ॥ त्रिधा कर्मविनिर्मुक्तो देहमात्रस्तु देहतः । भिन्नोऽनन्तसुबोधादिचतुष्टयसमुज्ज्वलः ॥७३ इति ते स्वात्मनो रूपं स्मरन्तः शुद्धमानसाः । ईक्षांचकुरनुप्रेक्षा विपक्षक्षयहेतवे ॥७४ क्षणमात्रस्थिरं लोके जीवितव्यं नृणां सदा । अभ्रवद्विभ्रमस्तत्र स्थायित्वेन कथं भवेत् ॥७५ शरीरं चञ्चलं वृक्षच्छायावद्यौवनं मतम् । जलबुद्वदवद्विद्धि वित्तं च जलदोपमम् ॥७६
मनमें चिन्तन करने लगे ॥ ६६-६८ ॥ श्रीजिनेश्वर, सिद्धभगवान्, साधु (आचार्य, उपाध्याय और साधु) तथा जिनधर्म येहि संसार में उत्कृष्ट मंगल- पापनाशक और पुण्यदायक हैं, ऐसा पाण्डवोंने मनमें विचार किया। ये हि जगतमें सर्वोत्तम और शरण हैं ऐसा समझकर उन्होंने उनको हृदयमें धारण किया ॥ ६९॥ अतिशय फैला हुआ और देहोंको जलाता हुआ यह अग्नि हमारे आत्माओंको नहीं जलाता है। जैसे अग्नि झोपडीको जलाता है परंतु उसके आश्रयसे रहनेवाले आकाशको नहीं जला सकता है । वैसे अमूर्त आत्माको अग्नि जलाने में असमर्थ है। अग्नि मूर्तिक होनेसे मूर्तिक शरीरसमूह उससे जलता है । परन्तु हमारी आत्मायें उनसे नहीं जलती हैं। क्योंकि समान सदृश चीज अपनेसे भिन्न चीजपर अपना प्रभाव प्रगट करती है। आत्मा शुद्ध है, कर्माष्टक रहित, सिद्ध है, ज्ञानमय और अमूर्त ( निराकार ) है । कर्मलेपरहित है । ज्ञानदर्शनोपयोगमय, ज्ञाता - चराचर वस्तु जाननेवाला, और द्रष्टा - समस्त वस्तु देखनेवाला, अविनाशी द्रव्यकर्म - ज्ञानावरणादिक, भावकर्म रागद्वेषादिक और नोर्म शरीरके और कर्मके उपकारक इतर आहारादिक पदार्थ इन सबसे आत्मा भिन्न है - रहित है । आत्मा देहके संयोग से देहप्रमाण है परंतु देहसे भिन्न अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यसे उज्ज्वल है । इस प्रकार अपने आत्मा के स्वरूपका चिन्तन करनेवाले शुद्धहृदयी वे पाण्डव त्रिपक्ष - कर्मके क्षयके लिये अनुप्रेक्षाओं को देखने लगे-विमर्श करने लगे || ७०-७४ ॥
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[ पाण्डवोंका अनुप्रेक्षाचिन्तन अनित्यानुप्रेक्षा ] लोकमें मनुष्यों का जीवन सदा क्षणमात्र स्थिर रहनेवाला है । यदि वह नित्य होता तो मेघों के समान उसमें विलास नहीं होता । अर्थात् मेघ जैसे देखते देखते नष्ट होते हैं वैसे मनुष्य नष्ट नहीं होते । परंतु मनुष्य क्षणमें नष्ट होते हैं अतः उनमें मेघ के समान विलास दीखता है । शरीर वृक्षकी छायासमान चंचल है, तारुण्य पानी के बबूलेके समान है अर्थात् शीघ्र नष्ट होता है और धन भेवके तुल्य है । मेघ जैसा विलीन होता है वैसा धनभी नष्ट होता है। यदि चक्रवर्तियों के भी विषय-पंचेन्द्रियोंके भोग्य पदार्थ नष्ट होते हैं तो
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