________________
पञ्चविंशं पर्व
४१९
तावदायगिरौ तत्र क्रूरः कुर्यधरः शठः । खलः कौरवनाथस्य भागिनेयो गुणातिगः ॥ ५७ निरीक्ष्य पाण्डवान् धर्मध्यानस्थान् दुष्टमानसः । निहन्तुमुद्यतस्तावच्चिन्तयन्निति मानसे ॥५८ मदीयान्मातुलान्हत्वा मदमत्ताः सुपाण्डवाः । इदानीं ते क्व यास्यन्ति मया दृष्टाः सुदैवतः ॥ अधुना प्रतिवैरस्य संदानेऽवसरो मम । योगारूढा इमे किंचिन करिष्यन्ति संगरम् ||६० ततः पराभवं कृत्वा हन्मीमान्मानशालिनः । वाचंयमान्यमाधारान्बलिनोऽपि बलच्युतान् ॥ आयसाभरणान्याशु पराकाराणि षोडश । प्रज्वलन्ति ज्वलद्वह्निवर्णान्यसावकारयत् ॥६२ लोहजं म्रुकुटं मूर्ध्नि ज्वलज्ज्वालामयं दधौ । कर्णेषु कुण्डलान्याशु तेषां हारान् गलेषु च ।। करेषु कटकान्क्रुद्ध आयसान्वद्विदीपितान् । कटीतटेषु संदीप्तकटिसूत्राण्यसूत्रयत् ॥६४ पादभूषाः सुपादेषु करशाखासु मुद्रिकाः । आरोपयद्विकल्पाढ्यो विकलो वृषतो भृशम् ॥ ६५ तदङ्गसंगती भूषावह्निः संप्रज्वलन्वपुः । ददाह दाहयोगेन दारुणीव पराणि च ॥ ६६ आयसाभरणाश्लेषान्निर्जगाम धनंजयात् । धूमोऽन्धकारक्रुद्वह्वेर्दारुयोगाद्यथा स्फुटम् ||६७
ध्यान में लीन थे, तब क्रूर वक्रचित्तवाला ( शठ ) दुष्ट, गुणोंसे दूर ऐसा दुर्योधनके बहिन का पुत्र जिसका नाम कुर्यधर था वहां आया ।। ५६-५७ || धर्मध्यानमें लीन हुए उन पाण्डवों को देखकर दुष्टहृदयी कुर्यधर उनको मारनेके लिये उद्युक्त हुआ । तत्पूर्व उसने मनमें ऐसा विचार किया" मेरे मामाओं को मारकर ये मदोन्मत्त पाण्डव यहां आये हैं; परंतु अब कहां जायेंगे ? सुदैवसे मैंने इनको देखा है । अब प्रतिवैरका बदला लेनेका मुझे अवसर प्राप्त हुआ है । ये इस समय योग मेंध्यानमें आरूढ हुए हैं। इस समय ये मुझसे कुछभी युद्ध नहीं करेंगे । इस लिये मानशाली, मौनी महाव्रतधारी, बलवान् परंतु बलच्युत ऐसे इन मुनियोंका पराभव करके मैं इनके प्राण हरण करूंगा ” ॥ ५८-६१ ॥ उस कुर्यधरने लोहेके सोलह प्रकारके उत्तम आकारवाले आभूषण बनवाये जो ज्वालायुक्त और उज्ज्वल अग्निके वर्णसमान लाल थे । उन मुनियोंके मस्तकपर जिसकी प्रकाशमान ज्वालायें इधर उधर फैलती हैं ऐसा लोहेका मुकुट उसने स्थापन किया । कानों में कुंडल, तथा उनके गलों में हार शीघ्र स्थापन किया। अभिसे प्रदीप्त ऐसे लोहेके कडे उनके हाथों में उस क्रोधीने पहनाये, तथा उनके कमरोंमें करधौनीयाँ बांधी गईं। उनके चरणों में पादभूषण, और उनके हाथों की पांचो अंगुलियों में मुद्रिकायें अनेक विकल्प करनेवाले और धर्मसे अत्यंत दूर ऐसे कुर्यधरने पहनाई ।। ६२-६५ ॥
[परमेष्ठिओंका चिन्तन] अग्नि जैसे अपने दाहगुणसे उत्तम लकडियोंका जलाता है वैसे पाण्डयों के शरीरसंसर्गसे ज्वालायुक्त अलंकारोंका अग्नि उनके शरीरोंको जलाने लगा। लोहेके अलंकारोंका संबंध होने पर धनंजय से- अर्जुन से अंधकार करनेवाला धूम प्रगट हुआ जैसे अग्निमेसें धूम प्रगट होता है । जब उन श्रेष्ठ पाण्डवोंने अपने देह जलने लगे हैं ऐसे देखा तब वे उसको बुझाने के लिये ध्यान रूपी पानीका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org