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________________ पाविज्ञ पर्व ५११ विषया यदि नश्यन्ति चक्रिणामपि का कथा। अन्येषां तु स्वयं त्याज्या विद्वद्भिः शिवसिद्धये ॥७७ नश्वरेण शरीरेण साध्यमत्राविनश्वरम् । पदं प्रतिमया साध्यश्चन्द्रो वा चन्द्रिकालयः ॥७८ न किंचिच्छाश्वतं लोके विद्यते निजजन्मिनम् । विहायेन्द्रधनुस्तुल्यं दृष्टमात्रप्रियं परम् ॥७९ किं कस्य जीवितं दृष्टं भरतादेश्च चक्रिणः । किं ताम्यसि तदर्थ किं सफलं वा क्षणं नय ।। अनित्यानुप्रेक्षा निःशरण्ये वने सिंहैराक्रान्तो मृगशावकः । न रक्ष्यते यथा जन्तुराकान्तो यमकिकरैः ॥८१ सायुधैः सुभटैर्वीरैर्धामिर्वीतिदन्तिभिः । संवृतं यमराड्जन्तुं गृह्णात्याखुभिवाखुसुक् ॥८२ आत्मनः शरणं नैव मन्त्रयन्त्रादयोऽखिलाः । सत्येव किं तु पुण्ये हितैः स्थिताश्च न के भुवि ।। पक्षिणो नष्टयानस्य पयोधाविव चायुषः । शरणं सत्यपाये न स्वास्थ्यं तस्मिन्सति रुवम् ॥ समर्थोऽपि सुरेन्द्रो न निजदेवीपरिक्षये । क्षमो हि रक्षितुं सोऽन्यान्कथं रक्षति कालतः ।। अन्यजनोंके विषयोंकी बातही क्या है ? इस लिये विद्वान् मोक्षसिद्धिके लिये उनको स्वयं छोड दें। इस नश्वर शरीरके द्वारा अविनश्वर-नित्य ऐसा मुक्तिपद साध्य करना चाहिये। जैसे प्रतिबिम्बके द्वारा चन्द्रिकाका निवासस्थान चंद्र प्राप्त किया जाता है। सब पदार्थ इन्द्रधनुष्यके समान देखने मात्र आतिशय प्रिय हैं। इस जगतमें अपने आत्माको छोडकर अन्य कोई भी वस्तु नित्य नहीं है। क्या किसीका जीवित नित्य देखा गया है ? नहीं। भरतादि चक्रवर्तीकाभी जीवित नित्य नहीं था। उस जीवितके लिये हे आत्मन्, तू क्यों खिन्न हो रहा है ? जो जीवनक्षण तुझे प्राप्त हुआ है उसे सफल कर ।। ७५-८० ॥ [अशरणानुप्रेक्षा ] जिसमें कोई रक्षणकर्ता नहीं ऐसे वनमें सिंहोंने जिसके ऊपर आक्रमण किया है ऐसे हरिणबालकका उनसे कोई रक्षण नहीं कर सकता वैसे यमदूतोंने पकडा हुआ प्राणी किसीके द्वारा नहीं रक्षा जाता है । बिल्लीने पकडे हुए चुहेके समान यमराजने पकडे हुए प्राणीको जिनके पास शस्त्र हैं ऐसे वीर सुभट, भाई, घोडे और हाथी नहीं छुडा सकते हैं । मंत्र यंत्र, औषधादिक, सर्व पदार्थ कदापि आत्माके रक्षक नहीं हैं। यदि पुण्य होगा तो मंत्र, तंत्रादिक उसके रक्षक होते हैं । वह यदि नहीं तो इस भूलोकमें उसके विना कौन स्थिर रहे हैं। समुद्रमें नौकाका आश्रय जिसने छोडा है ऐसे पक्षीको जैसे कोई रक्षक नहीं है वैसे आयुकी समाप्ति होनेपर मनुष्यका कोई रक्षण नहीं करता है। आयुष्य होनेपर उस प्राणीको निश्चयसे स्वास्थ्य मिलता है। सुरेन्द्रभी जब उसकी देवी मरने लगती है उसका रक्षण करनेमें असमर्थ होता है तब वह अन्यजीवका कालसे कैसे रक्षण करेगा। सिर्फ शुद्धचैतन्यरूप आत्माही नित्य है और वह कालके अधीन नहीं है इस लिये आत्माको छोडकर अन्य कुछ शरण नहीं है। जो मोहितचित्त हुए हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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