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________________ षड्जीवरक्षणं धर्मः सत्यं धोऽभिधीयते । परखपरदारादित्यागो धर्मो विशुद्धिता ॥३९ शुषेण प्राप्यते वस्तुः यत्सारं सातकारणम् । ज्ञात्वेति मानसे धर्म धत्व धीमन्सुधाकरम् ॥४० श्रुत्वेति जातवैराग्यो जिनुदेवी देवी प्रतम् । संसारसागरं ततु पोतप्रख्यं भवापहम् ॥४१ सुबन्धुनाग्रहाद्दत्ता दुर्गन्धा नामतो गुणात् । विवाहविधिना तस्मै जिनंदचाय सत्वरम् ॥४२ जिनदत्तो नवोढां तां गाढालिङ्गनवाञ्छया । निनाय वेश्म चात्मीयं तौ शय्यायां खितौ पुनः तदा देहोत्थदर्गिन्ध्यं तस्याः स सोदुमक्षमः । प्रातः पलायितः कापि संपृच्छ्य पितरौ पुनः॥४४ दुर्गन्धा दुःखिता चित्ते निनिन्द खं वियोगिनी।। हा हा विधे मया पापं किमकारि कुपोशितम् ॥४५ जननी तं गतं मत्वा तां निनाय निजे गृहे । वत्से धर्मे मति पत्खेत्युपदेशप्रदायिका ॥४६ तदेहदुष्टमन्धेन बन्धूनां दुःखितामवत् । ततस्तैः सा पृथग्धाम्नि रक्षिता दुःखिता सदा ॥ है। पंचस्थावर-कायजीव और एक त्रसकाय जीव मिलकर षटकायजीव कहे जाते हैं। इन जीवोंक रक्षणको धर्म कहते हैं। अहिंसाके समान सत्य धर्म है, परधन, परस्त्री, वेश्या आदिकोंका त्याग करना विशुद्धिके कारण होनेसे धर्म हैं। और जो सारभूत तथा सुखका कारण है ऐसी वस्तु धर्मसे प्राप्त होती है । ऐसा जानकर हे विद्वन्, तू मनमें अमृतकी खानतुल्य धर्मको धारण कर ।" मुनिने कहा हुआ धर्मका स्वरूप सुनकर जिसे वैराग्य हुआ है ऐसे जिनदेवने संसारसागर तीरनेके लिये नौकाके समान तथा संसारका नाश करनेवाला व्रत धारण किया अर्थात् वह मुनि हो गया । ॥ २८-४१॥ दुर्गन्धाको छोडकर उसका पति चला गया] सुबंधुने आग्रह करके नामसे और गुणसेभी दुर्गधा कन्या विवाहविधिसे उस जिनदत्तको सत्वर दी। जिनदत्त गाढालिंगनकी इच्छासे उस नूतन विवाहित दुर्गंधाको अपने घरमें ले गया। वे दोनों शय्यापर बैठे परंतु दुर्गधाकी देहसे उत्पन्न हुई दुर्गन्धको वह सहन करनेमें असमर्थ हुआ और मातापिताको पूछकर वह प्रातःकाल वहांसे कहीं भाग मया ॥ ४२-४४॥ [दुर्गन्धाने सुव्रता आर्यिकाको आहार दिया] दुःखित हुई वियोगिनी दुगंधाने मनमें इस प्रकारसे अपनी निंदा की। "हा हा दैव ! मैंने दयारहित होकर कौनसा पातक किया ?" इधर दुर्गधाकी माताको अपना जामात घरको छोडकर चला गया ऐसी वार्ता मालूम हुई, इस लिये वह आई और उसे उपदेश देने लगी, कि “हे बाले, धर्ममें तूं अपनी बुद्धि स्थापन कर अर्थात् धर्माचरणमें अपना मन अब तू स्थिर कर" ऐसा कहकर उसे वह अपने घर ले गई ॥ ४५-४६ ॥ उसकी देहकी दुगंधतासे उसके बांधवोंको दुःख होने लगा तब उन्होंने एक भिन्न घरमें उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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