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पाण्डवपुराणम् सुबन्धुना पुनः सोऽपि प्रार्थ्यमानः प्रपत्रवान् । तथेति धनदाक्षिण्यादाक्षिण्यं किं करोति न जिनदेवोऽपि तच्छ्रुत्वा दध्यौ हृदि ममेदृशी । यदि जाया भवेन्नूनं दुष्कर्मफलभाजिनः ।। तदर्गन्धासंगेन यौवनं निष्फलं मम । तदा स्यात्कर्मपाकेनाजाकण्ठस्तनवल्लघु ॥३२
दुर्गन्धायाः पिता श्रीमान्मान्यो राज्ञां सुमन्त्रवित् ।
तस्यान्यथा वचः कतुं न क्षमो जनको मम ॥३३ दुर्गन्धा दुर्भगा दुष्टा दुःखिता दीनमानसा । यदि मे भविता जाया तदा भोगैरलं मम ।। कुसंगासंगतो नृणां जीवितान्मरणं वरम् । व्याधिसंगो यथा सर्वोऽनयासंगस्तु दुःखदः ॥३५ निद्राक्षुधापरित्यक्तश्चिन्तयित्वेति निर्गतः । पितरावप्रकथ्यासौ गृहाद्यातो वनं घनम् ॥३६ समाधिगुप्तनामानं मुनिं नत्वा पुरः स्थितः । पप्रच्छ तत्र धर्मार्थ जिनदेवो विदांवरः ॥३७ जगाद वचनं योगी सावधानमनाः श्रुणु । धर्मः सम्यक्त्वसंशुद्धो वृषः सेव्यः शिवार्थिभिः
राजमान्य होनेसे उसका उपर्युक्त वचन सुनकर मौनसे धनदेव बैठा । यदि ऐसा होगा अर्थात् दुर्गधाके साथ मेरे पुत्रका विवाह करनेका सुबन्धुका विचार होगा तो उसे कौन भी नहीं रोक सकेगा क्यों कि वह राजमान्य होनेसे हमारा निषेध कुछभी कार्यकारी नहीं होगा। ऐसा धनदेवने मनमें विचार किया। सुबंधुने पुनः प्रार्थना करनेपर जिनदेवके साथ दुगंधाका विवाह करनेके लिये धनदेव धनके प्रभावसे तयार हुआ। अपनी इच्छा न होनेपरभी उसे कबूल होना पडा। ठीकही है,कि प्रभाव चाज ऐसी है कि वह क्या नहीं करेगी ? जिनदेवने भी दुर्गंधाके साथ अपना विवाह होगा ऐसी वार्ता सुनी। वह मनमें ऐसा विचार करने लगा। “यदि ऐसी दुर्गंधा कन्या मेरी स्त्री होगी तो उस दुर्गन्धाके शरीरसहवाससे अशुभ कर्मके फल भोगनेवाला मेरा यौवन निष्फल होगा। अशुभ कर्मोदयसे मेरा जन्म उस समय बकरीके गलस्तनके समान व्यर्थ होगा। दुर्गंधाका पिता श्रीमंत है, राजमान्य है और अतिशय चतुर है, . मेरा पिता उसका वचन अन्यथा करनेके लिये समर्थ नहीं है अर्थात् सुबन्धुका वचन उसे मान्य करना पड़ेगा। दुगंधा कुरूप है, दुर्गवसे पीडित है, दुःखी और दीन मनवाली है। यदि वह मेरी पत्नी होगी तो मेरा भोग भोगना समाप्तही हुआ। सर्व प्रकारके व्याधियोंका संसर्ग जैसा दुःखदायक होता है वैसा इस कन्याके साथ संसर्ग होना मुझे दुःखदायक होगा। कुसंगके संसर्गसे जीवित रहने की अपेक्षा मनुष्योंका मरना भला है।" ऐसे विचारोंसे जिनदेवको निद्रा
और भूखभी नहीं लगती थी। ऐसा विचार करके वह निकल गया। मातापिताको बिना पूछेही वह घरसे निबिड वनमें चला गया। वहां समाधिगुप्त नामक मुनिको नमस्कार करके उनके आगे वह बैठ गया। विद्वान जिनदेवने वहा मुनिराजको धर्मका अर्थ पूछा, मुनिने सावधान चित्त होकर तूं धर्मका अर्थ सुन ऐसा कहा-वे कहने लगे कि “ सम्यक्त्वसे धर्मको पवित्रता प्राप्त होती है इसलिये सम्यक्त्वसहित (जीवादिक तत्त्वोंकी श्रद्धासे सहित) धर्म मुक्तिसुखेच्छुकोंके द्वारा सेवन किया जाता
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