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४४५ कुसुमातिपरित्यागः पञ्चपुष्पाहते द्रुतम् । धेरैयफलसंन्यासनसजन्त्वादिरक्षणम् ॥१९ असत्यचौर्यविरतिः सुशीलस्य च रक्षणम् । उपधीनां विधानं चावधेधीरसुधर्मदम् ॥२० जिनोपदिष्टसन्मार्गश्रद्धा ध्यानं च सन्मतेः । स्मृतिश्च पञ्चमन्त्राणां खातन्त्र्यं खात्मनः पुनः।। एतत्सर्व विधेयं हि विधिना साधुना त्वया। तदाकर्णनमात्रेणातिमा मन्त्रमग्रहीत् ॥२२ पवित्राणुव्रत योग्यं मद्यमांसादिवर्जनम् । गृहीत्वा सा मृति प्राप मनुष्यत्वमवाप च ॥२३ चम्पायां धनवान्धन्यः सुबन्धुर्वर्तते वणिक् । वदान्यो राजमान्यश्च खजनैः सेवितः सदा ॥ धनदेवी प्रिया तस्य कुशला कुलपालिका । सा सुताभूत्तयोस्तन्वी दुर्गन्धाख्या विगन्धिका ॥ तत्रापरो वणिग्धन्यो धनदेवो धनच्युतः । भार्यास्याशोकदत्ताख्या पुत्रद्वयखनिस्ततः ॥२६ जिनदेवसुतः पूर्वो जिनदत्तस्तयोः परः । विद्याभ्यासं प्रकुर्वाणो यौवनं भेजतुश्च ती ॥२७ सुबन्धुना तदा प्रार्थि धनदेवोऽतिमानतः । दुर्गन्धाया विवाहार्थं जिनदेवेन धर्मिणा ॥२८ राजमान्यस्य तस्सत्यं वचः श्रुत्वा स संस्थितः । मौनं धृत्वेति चैवं चेदविता कोज वारयेत्।।
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करनेसे त्रसजीवोंका रक्षण होता है और अहिंसावतका पालन होता है ॥१७-१९॥ असत्य भाषण का त्याग, तथा चोरीकी त्याग कर सुशीलका रक्षण करना चाहिये अर्थात् स्वस्त्रीमें और स्वपतिमें संतोष रमा चाहिये। परिग्रहोंकी अवधिका-मर्यादाकी प्रतिज्ञा करनी चाहिये, जिससे इच्छाका नियंत्रण होता है। यह पांच अणुव्रतोंका पालन धीरोंको-विवेकी लोगोंको पुण्य देनेवाला है। जिनेश्वरके कहे हुए मोक्षमार्गपर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। अच्छी बुद्धिका चिन्तन सम्यग्ज्ञान है तथा पंचमंत्रोंका हमेशा स्मरण करना चाहिये ये सब उपाय आत्माके स्वातंत्र्यरूप हैं अर्थात् इनके आचरणसे आत्माकी कर्मपरतंत्रता नष्ट होती है । यह सब शुभाचरण भद्र विचारवाली तुझसे विधिपूर्वक किया जावे।" इस प्रकारका उपदेश सुनकर उस मातंगीने अतिशय प्रीतिसे मंत्रका स्वीकार किया। योग्य ऐसे पवित्र अणुव्रत और मद्यमांसादिकोंका त्याग ऐसे व्रतोंका स्वीकार कर वह मातङ्गी मर गई और उसने मनुष्यपना प्राप्त किया ॥ २०-२३ ॥
[मातङ्गी दुर्गन्धा नामक कन्या हुई ] चम्पानगरीमें धनवान् और पुण्यवान् सुबन्धु नामका वैश्य रहता था। वह दानी, राजमान्य और परिवारोंसे सदा सेवित था। उसकी पत्नीका नाम धनदेवी था। वह चतुर और कुलकी रक्षा करनेवाली थी। उन दोनोंको सुंदराङ्गी कन्या हुई। वह दुर्गध शरीरबाली होनेसे दुगंधा नामसे प्रसिद्ध हुई ॥ २४-२५॥ उसी नगरमें धनदेव नामक पुण्यवान् परंतु धनरहित वैश्य रहता था। इसकी भार्याका नाम अशोकदत्ता था, इसने दो पुत्रोंको जन्म दिया था। पहिले पुत्रका नाम जिनदेव और छोटे पुत्रका नाम जिनदत्त था। विद्याभ्यास करनेवाले ये दोनों पुत्र कालान्तरसे तारुण्यको प्राप्त हुए ॥ २६-२७ ॥ तब सुबन्धु श्रेष्ठीने दुर्गधाका विवाह धर्मवान् जिनदेवके साथ करने के लिये अतिशय आदरसे धनदेवकी प्रार्थना की। सुबंधु श्रेष्ठी
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