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________________ पाण्डवपुराणम् उनसेननरेन्द्रस्य जयावत्याच देहजाम् । राजीमती ययाचे स नेमिपाणिग्रहेन्छया ॥४१ राज्यलोमेन वैकुण्ठो मेलयित्वा बहून्पशून् । वाटके बन्धयामास नेमिवैराग्यसिद्धये ॥४२ विवाहाचं जिनो गच्छन्वीक्ष्य बद्धान्बहून्पशून् । पृष्ट्वा तद्रक्षकान्प्राप वैराग्यं रागद्गः ॥४३ अनुप्रेक्षां जिनो ध्यात्वा लौकान्तिकसुरैः स्तुतः । शिबिका देवकुर्वारुयां समारुह्य वनं ययौ सहस्राप्रपणे स्थित्वा षष्ठ्यां च श्रावणे सिते । पक्षे सहस्रभूपालैः स दीक्षां प्रत्यपद्यत ॥४५ चतुर्थज्ञानधारी स बभूवासभकेवली । षष्ठोपवासतो यातः पुरी द्वारावती पराम् ।।४६ कनकाभो नृपो वीक्ष्यागच्छन्तं पारणाकृते । जग्राह युक्तितो नेमिमुच्चदेशे स्थिरीकृतम् ।। पादप्रक्षालनं कृत्वा पूजनं च नतिं मुनेः । त्रिशुद्धथा चानयुद्धथानं ददे तस्मै नरैश्वरः॥४८ श्रद्धादिगुणसंपन्नः पश्चाश्चयोणि चाप सः । कोटी द्वादश रत्नानां साधो सुरकरच्युता॥ वृष्टिः सौमनसी जाता ववौ वायुः सुशीतलः । सुरसंताडितोऽभाणीत् दुन्दुभिस्तन्नृपालये ।। जिनोऽथ निघसं कृत्वा वनं गत्वा स्थिरं स्थितः। दधौ ध्यानं निजे चित्ते चिद्रपस्य परात्मनः -----rrrrr चरणकमलोंको नमस्कार किया। और विवाहके सूचक वाक्योंसे उसने उनकी प्रशंसा की ॥ ३८४०॥ उग्रसेनराजा और जयावती रानीकी कन्या राजीमतीकी उसने नेमिप्रभुके साथ पाणिग्रहण करनेकी इच्छासे याचना की। और तदनन्तर श्रीकृष्णने राज्यके लोभसे बहुत पशुओंको मिलाकर बाडेमें नेमिप्रभुको वैराग्य प्राप्त करानेकी इच्छासे बंधवा दिया ॥ ४१-४२ ॥ विवाहके लिये प्रभु जा रहे थे, उन्होंने बांधे हुए बहुतसे पशुओंको देखा, उनके रक्षकोंको बांधनेका कारण पूछकर वे रागभावसे दूर होकर विरक्तताको प्राप्त हुए। उन्होंने द्वादश अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन किया । लौकान्तिक देवोंने आकर उनकी स्तुति की। देवकुरु नामकी शिबिकामें आरूढ होकर वे वनमें चले गये। सहसाम्रवनमें खडे होकर श्रावण शुक्ल षष्ठीके दिन हजार राजाओंके साथ उन्होंने दीक्षा ली। जिनको केवलज्ञान शीघ्र प्राप्त होनेवाला है ऐसे प्रभु चौथे ज्ञानके-मनःपर्ययज्ञानके धारक हुए ॥ ४३-४५ ॥ दो उपवासोंके अनंतर प्रभुने उत्तम नगरी द्वारावतीमें प्रवेश किया। पारणाके लिये आते हुए प्रभुको कनकाभ नामक राजाने देख कर युक्तिसे पडगाहा। उच्चदेशमें उनको स्थिर किया । अर्थात् ऊंचे आसनपर राजाने प्रभुको बैठाया । मुनिराजप्रभुके चरण धोकर उसने पूजा की और नमस्कार किया। राजाने मन वचन और शरीर शुद्धिके साथ अन्नशुद्धि कर प्रभुको आहार दिया। श्रद्धादि सप्तगुणोंसे सहित होनेसे राजाको पंचाश्चर्य प्राप्त हुए। उसके अंगनमें देवोंके हाथोंसे साडेबारा कोटि रत्नोंकी वृष्टि हुई । कल्पवृक्षोंके पुष्पोंकी वृष्टि हुई । शीतलवायु बहने लगी। देवोंके द्वारा राजाके घरमें नगारे ताडित हुए उनसे सुंदर ध्वनि हुआ ॥ ४६-५० ॥ [प्रभुको केवलज्ञानप्राप्ति ] प्रभु आहार ग्रहण कर वनमें जाकर स्थिर बैठ गये। उन्होंने अपने मनमें शुद्ध चैतन्यरूप परमात्माका ध्यान धारण किया। छप्पन दिनोंका छअस्थावस्थाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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