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द्वाविर्श पर्व
४६५ छत्रस्थसमये याते षट्पञ्चाशदिनप्रमे । गिरी रैवतके तस्थौ जिनः षष्ठोपवासभृत्।।५२ महावतधरो धीरः सुगुप्तिसमलंकृतः । समित्याहितसञ्चित्तः परीषहसहो बभौ ॥५३ धर्मभ्यानवलाद्योगी गलत्यायुरयत्नतः। दृष्टिनप्रकृतीः सप्त जघान सुघनो जिनः ॥५४ समातपचतुर्जातित्रिनिद्राः स्थावराभिधम् । सूक्ष्मं श्वभ्रतिरश्चोश्च युग्मे उद्योतकर्म च ॥ कषायाष्टकषण्ढत्वस्त्रीत्वहास्यादिषद् नृता । क्रोधं मानं च मायां च लोभं संज्वलनाभिधम् ॥ निद्रां सप्रचलां दृग्ध्यावरणान्यन्तरायकम् । हत्वा जिनेश्वरः प्राप केवलज्ञानमद्भतम् ॥५७ वरे ह्याश्वयुजे मासि शुक्लपक्षादिमे दिने । केवलज्ञानपूजायां समागुश्च नराः सुराः ॥५८ वरदत्तादयोऽभूवन्नेकादश गणाधिपाः । तस्याच्युतादिभूपालैः पूजितोऽभाजिनेश्वरः ॥५९ धनदेन ततश्चक्रे समवस्थानमुत्तमम् । जिनस्य विजितारातेर्विजिताखिलपाप्मनः ॥६० .. शालो वेदी ततो वेदी शालो वेदी च शालकः । वेदी शालश्च वेदी च क्रमतो यत्र शोभते प्रासादाः परिखा वल्ल्यः प्रोद्यानानि सुकेतवः । सुरवृक्षा गृहा यत्र गणाः पीठानि भान्ति च॥ मानस्तम्भाः सुनाट्यानां शाला:स्तूपा महोत्रताः । मार्गा धूपघटा भान्ति ध्वजा यत्र सरांस्यपि
समय प्रभुका व्यतीत हुआ। रैवतकपर्वतपर प्रभु दो उपवास धारण कर बैठ गये। महाव्रतधारी, धीर, उत्तम गुप्तियोंसे भूषित, समितियोंमें अपने चित्तको एकाग्र किये हुए प्रभु परिषह सहन करते हुए शोभने लगे ॥ ५१-५३ ॥ जिनके तीन आयु बिना प्रयत्नके गल गये हैं ऐसे योगी और अतिशय दृढ़ जिनेश्वरने धर्मध्यानके बलसे सम्यग्दर्शनके घातक अनंतानुबंध्यादि सात प्रकृतियोंका नाश किया। तथा आगे लिखी हुई प्रकृतियोंका शुक्लध्यानसे प्रभुने नाश किया। आतप, एकेन्द्रियजाति आदि चार जातिकर्म, तीन निद्राप्रकृति, स्थावर, सूक्ष्म, श्वभ्रगति नरकगति तिर्यग्गति, नरकगत्यानुपूर्वी और तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोधादिक आठ कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, संज्वलन क्रोध, मान, माया
और लोभ, निद्रा और प्रचला, दर्शनावरणकर्म, ज्ञानावरणकर्म और अन्तरायकर्म इन कर्मप्रकृतियोंको घात कर प्रभुने अद्भुत केवलज्ञान प्राप्त किया। उत्तम आश्विन शुक्ल पक्षकी प्रतिपदाके दिन केवलज्ञानपूजाके समय मनुष्य और देव आये। प्रभुके वरदत्तादिक ग्यारह गणधर थे, श्रीकृष्णबलभद्र आदि राजाओं द्वारा पूजे गये प्रभु शोभने लगे ॥५४-५९ ॥ संपूण पापको जिसने जीता है, तथा जिसने ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मरिपुका नाश किया है ऐसे प्रभुके उत्तम समवसरणस्थानकी कुबेरने रचना की। तट, वेदी, वेदी, तट, वेदी, तट, वेदी, तट और वेदी ऐसी रचना इस समवसरणमें क्रमसे शोभती है । इसमें प्रासाद, खाई, लतायें, उद्यान, ध्वज, कल्पवृक्ष और गृह हैं जहां गण और पीठोंकी शोभा है। मानस्तंभ, नाट्यशाला, अतिशय ऊंचे स्तूप, मार्ग, धूपघट, ध्वज और सरोवर इस समवसरणमें शोभते हैं। सभाके मध्यमें स्पष्ट अशोकादि आठ प्रातिहार्योंको
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