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पाण्डपरानम् इति पाण्डवपुराणे भट्टारकश्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे द्रौपदीहरणविष्णुपाण्डवतद्दीपगमनद्रौपदीप्राप्तिवर्णनं नामैकविंशतितमं पर्व ॥२१॥
। द्वाविंशं पर्व। मुनिसुव्रतसंज्ञं तं मुनिसुव्रतमुत्तमम् । मुनिसुव्रतदं वन्दे मुनिसुव्रतं यतो भवेत् ॥१
अथ ते पाण्डवा विष्णुपादौ नत्वा मुदा जगुः।
तव प्रभावतो लब्धा द्रौपदी वैरिणा हृता ।।२।। ततस्ते रथमारुह्य तामादाय मनोहराम् । प्रतस्थिरे नृपाः पूर्णमनोरथशताकुलाः ॥३ परितः पाञ्चजन्यस्तु पीताम्बरमहीभुजा । महानादं प्रकुर्वाणः पयोधरसमध्वनिः ॥४ तदा तद्भरतावासिचम्पापू:परमेश्वरः । त्रिखण्डमण्डलाधीशः कपिलाख्यः सुचक्रभृत् ॥५ कम्पयन्तं धरा सर्वां तच्छङ्खनिनदं नृपः । अश्रौषीद्विपुलं नन्तुं जिनं प्राप्तो महामनाः॥६ जिनस्य समवस्थानस्थितेनार्धसुचक्रिणा । शङ्खशब्दं समालोक्य पप्रच्छे मुनिसुव्रतम् ॥७
पाण्डवपुराणमें द्रौपदी-हरण, विष्णु और पाण्डवोंका धातकीखंडमें गमन और द्रौपदीकी प्राप्ति इन विषयोंका वर्णन करनेवाला ।
यह इक्कीसवा पर्व समाप्त हुआ ॥ २१ ॥
[बावीसवां पर्व] जिसके आश्रयसे मुनियोंके अहिंसादि सुव्रत-महाव्रत प्राप्त होते हैं, जिसने मुनियोंको उत्तम व्रत धारण किये हैं, जो अनुयायि - भव्यजनोंको मुनियोंके सुव्रत प्रदान करता है, उस मुनिसुव्रत इस अन्यर्थ नामको धारण करनेवाले वर्तमान कालीन वीसवे तीर्थकरको मैं वंदन करता हूं ॥ १॥
___ [कृष्ण-पाण्डवोंका द्रौपदीके साथ आगमन ] अनंतर वे पाण्डव विष्णुके चरणोंको नमस्कार कर आनंदसे बोलने लगे-हे विष्णो, आपके सामर्थ्य से हमें शत्रुके द्वारा हरी गई द्रौपदी प्राप्त हुई। तदनंतर सैंकडो मनोरथ पूर्ण होनेसे आनंदित हुए वे राजा रथमें आरूढ होकर और उस मनोहर द्रौपदीको साथ लेकर हस्तिनापुरके प्रति प्रयाण करने लगे। पीताम्बरराजाने-श्रीकृष्णने जिसकी ध्वनि मेघके समान है, ऐसा महाध्वनि करनेवाला पांचजन्य नामका शंख पूरा । उस समय धातकीखण्डके भरतक्षेत्रस्थ चम्पापुर नगरके पति, तीनखण्डके देशोंके प्रभु कपिलनामक अर्द्धचक्रवर्ती राज्य करते थे। संपूर्ण पृथ्वीको कँपानेवाला विष्णुके शंखका महाध्वनि जिनेश्वरको वंदन करनेके लिये आये हुए महामना उदार चित्तवाले कपिल नारायणने सुना ॥२-६॥ जिनेश्वरके समवसरणमें बैठे हुए अर्द्धचक्रवर्तीने शंख-शब्द सुनकर मुनिसुव्रतनाथ जिनेश्वरको ( धातकीखंडस्थ भरतक्षेत्र तीर्थ
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