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द्वाविंशं पर्व कस्य शक्खरवोऽयं मो इति पृष्टेजादीजिनः। जम्बूद्वीपस्य भरते भाति द्वारावती पुरी ॥८ त्रिखण्डभरताधीशस्तत्र कृष्णो हि भूपतिः । पार्थप्रियार्थमायातः शसस्तेनात्र परितः ॥ तं द्रष्टं गन्तुमिच्छुः सोऽवाचीत्थं धर्मचक्रिणा । चक्री च चक्रिणं नैव नेक्षते च हरि हरिः।। तीर्थकरो न तीर्थेशं बलभद्रो बलं च न । गतस्य चिहमात्रेण तस्य स्यात्तव दर्शनम् ॥११. तथापि कपिलस्तूर्ण ययौ तं द्रष्टुमिच्छया । अन्योन्यं ध्वजमानं तौ तदा ददृशतः स्फुटम् ।।
मातौ शाखौ च ताभ्यां तौ तयोः शुश्रुवतुः खरान् ।
केशवं जलधौ यातं मत्वा निवृत्य स गतः ॥१३ । चम्पामागत्य चक्री स निर्भय॑ पारदारिकम् । पबनाभं सुखेनास्यात्रिखण्डभरतेश्वरः ॥१४ . अमी च पूर्ववत्तीा जलधि तरटे स्थिताः। जनार्दनो जगादेवं यूयं व्रजत पाण्डवाः॥१५. विसर्म्य स्वस्तिकं यावदायामि यमुनातटम् । उत्तीर्य तां तरी मद्यं प्रेषयचं पुनर्नृपाः॥१६ ततस्ते यमुनां प्राप्य द्रौपद्या सह पाण्डवाः । उत्तीर्य तां स्थितास्तीरे दक्षिणे लक्ष्यलक्षणाः॥ धूर्तत्वेनाशु भीमेन नीतोत्पान तरीस्तटम् । कृष्णबाहुबलं द्रष्टुं कालिन्द्युत्तरणक्षणे ॥१८
करको ) पूछा, कि हे प्रभो, यह शंखध्वनि किसका है ? ऐसा पूछने पर जिनेश्वरने इस प्रकार कहा- जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें सुंदर द्वारावती नगर है। वहां त्रिखण्ड भरतका स्वामी कृष्णराजा राज्यशासन कर रहा है। वह यहां अर्जुनकी स्त्री द्रौपदीको ले जानेके लिये आया था उसने यहां शंख पूरा है । उसको देखनेके लिये मुझे जानेकी इच्छा है ऐसा अर्धचक्रीने कहा तब धर्मचक्रवर्ती मुनिसुव्रतनाथने ऐसा कहा- हे कपिल, चक्रवर्ती चक्रवर्तीको, हरि-नारायण हरिको-नारायणको, तीर्थकर तीर्थकरको और बलभद्र बलभद्रको नहीं देखते हैं। देखनेके लिये जानेपर चिह्नमात्रसे ध्वजमात्रसे तुझे दर्शन होगा। तो भी कपिल श्रीकृष्णको देखनेकी इच्छासे शीघ्र चला गया, परंतु उन दोनोंने अन्योन्यकी ध्वजामात्र स्पष्ट देख ली। उन दोनोंने पूरे हुए एक दूसरेके शंखका ध्वनि सुना। श्रीकृष्ण समुद्रके पास चले गये ऐसा समझ कर वह कपिल अर्धचक्रवर्ती अपनी राजधानीके प्रति लौट गया ॥ ७-१३ ॥
[पाण्डवोंका दक्षिण मथुरामें राज्य-स्थापन] त्रिखंड भरतका पति वह कपिल चक्रवर्ती चम्पानगरीमें आया । अनंतर उसने परस्त्रीलम्पट पद्मनाभकी निर्भर्त्सना की और अपनी राजधानीमें सुखसे रहने लगा। ये पाण्डव पूर्वके समान समुद्रको रथोंसे उल्लंघकर उसके तट पर बैठ गये। जनार्दनने पाण्डवोंको कहा कि “हे राजा पाण्डवो, तुम आगे चलो, मैं स्वस्तिक देवका विसर्जन करके जब आऊंगा तब आप यमुना नदीको तीरकर मेरे पास यमुनाके तटपर पुनः नौका भेज दें। तदनंतर वे कुछ बहानेका विचार करनेवाले पाण्डव द्रौपदीके साथ यमुना नदीको तीरकर उसके दाहिने तटपर बैठ गये । कालिन्दीको तीरनेके समय कृष्णका बाहुबल देखनेके लिये धूर्तपनासे भीम
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