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एकविंशं पर्व
४५९ नष्टो जनस्तदा सर्वो भूपोऽपि प्रपलायितः। ब्रुवाणस्त्राहि त्राहीति द्रौपदीं शरणं ययौ ॥ द्रौपदीहरणात्पापं कृतं यद्धि मया फलम् । लब्धं तदत्र भूमीशे इत्यवोचद्गिरं पराम् ॥१३४ द्रौपद्यथावदद्वाक्यं श्रृणु रे मूढमानस । पुरा प्रोक्तं त्वदग्रेत्र समेष्यन्त्याशु पाण्डवाः॥१३५ दुर्योधनादयो योधा युद्धे यैर्निर्जिताःक्षणात् । तेषामग्रे भवद्वार्ता केति पूर्व मयोदितम्॥१३६ तावता तत्र ते प्रापुर्दन्तिनो वा निरङ्कुशाः। भूपस्तान्वीक्ष्य नमोऽभूद्रक्ष रक्षेति संवदन्॥ तस्याः स शरणं प्राप्तो भूपोऽभाणीद्भयातुरः। त्वमखण्डा महाशीला सुशीलासि समप्रिया। त्वं दापयाभयं दानमेत जीवनप्रदम् । सा तदादापयत्तस्याभयं दानं च तैनॅपैः॥१३९ ततः प्रणम्य कृष्णाधी पाण्डवान्विनयोद्यतः। यथायथं चकारासौ विनयं भोजनादिभिः॥ ते तदा द्रौपदीं लात्वा स्नात्वाईत्पदपङ्कजम् । प्रपूज्य कारयामास द्रौपद्याः पारणां पराम् ॥
इति शुभपरिपाकाच्छौभचन्द्रे जिनेन्द्रे वरकृतनतिभावा भव्यभावाः सुभव्याः।
द्रुपदनृपतिजातां ते समादाय प्रापुर्जननिकरसमिद्धं सद्यशो लोकचारि ॥१४२ यस्माद्धर्मान्नृपतिमहितं पद्मनाभं विजित्य प्राप्ताः पूजां परतरमहाधातकीखण्डजाताम् । लब्ध्वा पार्थप्रमदवनितां द्रौपदी पाण्डवास्ते । प्रापुः सातं जिनवरवृषप्राभवं तद्धि विद्धि ।
कहा था, कि पाण्डव जल्दी यहां आयेंगे। इन्होंने दुर्योधनादिक योद्धाओंको युद्धमें क्षणमें जीत लिया है उनके आगे तेरी क्या कथा है ऐसा भी मैंने पूर्वमें कहा था।" द्रौपदी उसे बोल रही थी, इतने में निरंकुश हाथियोंके समान वे वहां आगये । "मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो" इस तरह कहता हुआ वह राजा उनको देखकर नम्र हुआ। भयसे भरा हुआ वह राजा द्रौपदीको शरण गया।
और कहने लगा, कि "हे द्रौपदी, तू अखण्ड महाशीलवती है, तू सुशील है और समप्रिय है। मुझे तू इन राजाके द्वारा जीवन देनेवाला अभयदान दिला" । तब उन राजाओंके द्वारा उसे द्रौपदीने अभयदान दिलाया ॥ १२९-१३९॥ तदनंतर विनयसे युक्त उस राजाने कृष्णके चरणोंको नमस्कार कर पाण्डवोंका भोजनादिकोंसे यथायोग्य विनय किया। उस समय वे द्रौपदीको लेकर और स्नान करके जिनचरणकमलोंकी पूजा करने लगे। इसके अनंतर उन्होंने द्रौपदीको पारणा कराई ॥ १४०-१४१ ॥ शुभ और आनंददायक जिनेश्वरमें जिन्होंने उत्तम नम्रता-भक्ति की है, जिनके कल्याण करनेवाले भाव हैं, तथा जो सुभव्य हैं, ऐसे पाण्डवोंने शुभकर्मके उदयसे उस द्रौपदको ग्रहण कर लोक-समूहमें वृद्धिंगत हुए, जगतमें संचार करनेवाले उत्तम यशको प्राप्त किया है ॥१४२ ॥ इस जिनधर्मसे पाण्डवोंने राजाओंमें पूज्य पद्मनाभराजाको जीत लिया और अतिदूर महा धातकीखण्डमें जाकर वहां उत्पन्न हुई पूजाको प्राप्त किया' ऐसे वे पाण्डव अर्जुनकी आनंद देनेवाली पत्नी द्रौपदीको प्राप्त कर सौख्यको प्राप्त हुए। यह सब जिनेश्वरके धर्मकी महिमा जानो ॥१४३ ॥
ब्रह्म-श्रीपालकी सहायतासे श्रीभट्टारक शुभचन्द्रने रचे हुए महाभारत नामक
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