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पाण्डवपुराणम् अपमानादिदोषेण संक्रुद्धोऽगाद्विधेः सुतः । तस्माद्हाच्छिरो धुन्वंश्चिन्वन्रोषं स्वमानसे ॥१० बनाम नभसि भ्रान्तः पूत्कारमुखराननः । न कापि रतिमालेभे गतोऽसौ गगनार्णवम् ॥११ जगाम विजनं देशं सहसा च समुन्नतम् । अवादिते च नृत्यामि नारदोऽहं सदा मुदा ॥१२ वादिते किं पुनर्वच्मि चतुरः कलहप्रियः । क्वापमानः कृतो मेऽद्यानया दुःखीकृतोऽप्यहम् ।। दुषणं च करोम्यत्रैतस्याः सा शुद्धिमाप्य च । प्रियेण संगमासाद्य तादृशी स्यानिरङ्कुशा।। परेण हारयामीमां तदेषा दुःखिनी भवेत् । तस्या हतौ च मे पापं भविता तन्न युज्यते ॥१५ परस्त्रीलम्पटं कंचित्पश्यंश्चोपायसंयुतः । प्रमृग्य लंपट किंचित्तेनेमां हारयाम्यहम् ॥१६ हरिणा बलदेवेन वन्दितोऽहं परैर्नृपैः । सर्वेषां गुरुरेवाहं सर्वस्त्रीणां विशेषतः ॥१७ पश्यतास्याः सुधृष्टत्वं दुष्टत्वं च सुकष्टकृत् । अवगण्य स्थितेयं मामासने दर्पसर्पिणी ॥१८ यः शृङ्गाररसोऽप्यस्या वल्लभो वल्लभादपि । स शृङ्गाररसो यात्यस्या यथाहं तथा यते ॥ तदा मनोरथाः सर्वे सेत्स्यन्ति मम निश्चितम् । उत्सारयामि सौभाग्यमहमस्या यदा ननु । अपमानभवं दुःखं तदा यास्यति मे हृदः । यदास्या हरणं दुःखं नयनाभ्यां नभोगतः।।२१
होकर मनमें रोषकी वृद्धि करते हुए मस्तकको हिलाकर दौपदीके घरसे बाहर गये । मुखसे शापके शब्द निकालनेवाले वे भ्रान्त होकर आकाशमें भ्रमण करने लगे। उनको कहींभी संतोष प्राप्त नहीं हुआ। आकाशसमुद्रमें प्रवेश करते हुए वे अकस्मात् ऊंचे एकान्त प्रदेशमें गये। वे मनमें इस प्रकार विचार करने लगे मैं नारद हूं, मैं बिना वाद्योंकेहि आनंदसे नाचता हूं, फिर वाब बजते हुए मैं क्यों नहीं नृत्य करूंगा। मैं चतुर हूं। मुझे कलह करना बहुत प्रिय है। इस द्रौपदीने आज मेरा अपमान किया है। यद्यपि इसने मुझे दुःख दिया है-दुःखी किया है ऐसा समझकर यदि मैं इसे कुछ दूषण करूं तो यह शुद्धिको प्राप्त होकर अपने पतिके सहवाससे पुनः पूर्ववत् निरंकुश होगी। यदि इसका दूसरेके द्वारा हरण कराऊंगा तो यह खेदखिन्न होगी। यदि इसका मैं घात करूंगा तो मुझे पाप लगेगा। इस लिये ऐसा विचार करना योग्य नहीं है । किसी परस्त्री लंपटको देखकर किसी उपायसे उस लंपट मनुष्यको खोजकर उसके द्वारा इसे हरवाना अच्छा होगा। मुझे श्रीकृष्ण, बलभद्र और अन्य राजा नमस्कार करते हैं। मैं सब जनोंका गुरु हूं, और विशेषतः सर्व स्त्रियोंका गुरु हूं। कष्ट देनेवाला इसका दुष्टपना और धृष्टता तो देखो। मेरा तिरस्कार करके मानो यह उन्मत्त सर्पिणी आसनपर बैठी थी। जो शृङ्गाररस इसे अपने पतिसेभी प्यारा है, वह शृंगाररस इसका जैसा नष्ट होगा ऐसा प्रयत्न मैं करूंगा। और तबही मेरे संपूर्ण मनोरथ निश्चयसे सिद्ध होंगे। जब मैं इसका सौभाग्य दूर करनेमें समर्थ होऊंगा आकाशमें ठहरकर मुझे इसका हरण आंखोंमें देखनेको मिलेगा,तब मेरे हृदयसे यह अपमानदुःख नष्ट होगा अन्यथा नहीं " ॥९-२०॥ इस प्रकारसे विचार कर वे ऋषि कोपसे आकाशमें चले गये। उपाययुक्त होकर परस्त्री लंपट किसी पुरुषको देखते हुए क्षीण अन्तःकरणसे वे ऋषि
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