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________________ ४४९ एकविंशं पर्व चिन्तयित्वेति कोपेन स चचाल ऋषिर्नभः। परस्त्रीलंपटं कंचित्पश्यंश्थोपायसंयुतः ॥२२ . बश्राम निखिलां क्षोणी क्षिप्रं क्षीणमना ऋषिः । तादृक्षं लोकते यावन्नृपं नाभूतदा सुखी।। चिन्तयन्सोऽन्यनारीषु रतं नरपमुन्नतम् । जगाम धातकीखण्डं नानाखण्डसमुन्नतम् ॥२४ योजनानां चतुर्लक्षैविस्तृतं सुश्रुतं श्रुतौ । मन्दरः सुन्दरः पूर्वस्तत्रास्ति सुमनोहरः ॥२५ चतुर्भिरधिकाशीतिसहस्रैर्योजनमहान् । समुत्तुङ्गश्चतुर्भिश्च वनर्वाभाति भूधरः ॥२६ । तस्य दक्षिणदिग्भागे भारतं भुवि विश्रुतम् । षखण्डमण्डितं भाति भाभारभूपभूषितम्।।२७ मध्येक्षेत्रं पुरी सारामरकङ्का सुखाकरा । भूपीठं भूषयन्ती च सुभगा भवनोत्तमा ॥२८ तां पाति परमः प्रीतः पद्मनाभमहीपतिः । पद्मनाभ इवोत्तुङ्ग इन्दिरामन्दिरं सदा ॥२९ दोर्दण्डखण्डितारातिमण्डलो महिपैः स्तुतः । अवद्योद्धरविद्याभिः सुविद्यः परमोदयः ॥३० विपुलामलसद्वक्षाः क्षितिरक्षाविचक्षणः । अलक्ष्यस्तु विपक्षाक्षे रूपनिर्जितमन्मथः॥३१ अथ ब्रह्मसुतः पट्टे तस्या रूपमलेखयत् । रूपनिर्जितसर्वस्वीसमूह चोहकारकम् ॥३२ शीघ्र संपूर्ण पृथ्वीपर भ्रमण करने लगे। जबतक उनको परस्त्रीलंपट राजा नहीं मिला तबतक वे सुखी नहीं हुए। कोई ऊंचा-ऐश्वर्यशाली परस्त्रीलंपट राजा कहां मिलेगा ऐसा चिन्तन करनेवाले वे नारदर्षि अनेक पद्मवनोंसे समुन्नत-सुंदर ऐसे धातकीखंडको चले गये। वह धातकीखंड चार लक्ष योजन विस्तीर्ण है और आगममें प्रसिद्ध है। उसकी पूर्वदिशामें सुंदर और मनहरण करनेवाला मंदर पर्वत है, वह चौरासी हजार योजन ऊंचा और अतिशय बडा है। भद्रशालादि चार वनोंसे वह पर्वत अत्यंत शोभायुक्त है। उसके दक्षिणदिशाके भागमें पृथ्वीतलमें प्रसिद्ध भरतक्षेत्र है। वह छह खंडों द्वारा शोभता है । वह कांतिसंपन्न राजा लोगोंसे भूषित है ॥२१-२५॥ [नारदका पद्मनाभसे द्रौपदीरूप-कथन] इस भरतक्षेत्रके मध्यभे सुखकर और उत्तम अमरकंका नामक नगरी है उसने भूमितलको शोभायुक्त बनाया है । वह सुंदर है और उत्तम घरोंसे युक्त है। अतिशय स्नेहवान् पद्मनाभ नामका राजा जैसे उन्नतिशील कृष्ण इन्दिरामंदिरकालक्ष्मीमंदिरका पालन करता है वैसे हमेशा पालन करता था। अपने बाहृदण्डसे शत्रुसमूहको अथवा शत्रुओंके देशको उसने नष्ट किया था। अनेक राजा उसकी स्तुति करते थे। यह राजा पापचतुर विद्याओंसे सुविद्य था अर्थात् पापयुक्त विद्याओंका ज्ञाता था। महान् वैभवशाली था। यह राजा विशाल और निर्मल वक्षःस्थलका धारक, पृथ्वीकी रक्षामें चतुर, शत्रुके नेत्रोंको अलक्ष्य और अपने रूपसे मदनको जीतता था ॥ २८-३१ ॥ उधर नारदने अपने रूपसे सव स्त्रीसमूहके रूपको जीतनेवाला और नानाविध विकल्प मनमें उत्पन्न करनेवाला उस द्रौपदीका सौंदर्य पट्टपर लिखा । पट्टपर लिखा हुआ अतिशय आकर्षक और अपनी कांतिसे सूर्यको लज्जित करनेवाला रूप राजाको दिखाया। सुवर्णके समान सुंदर, मनोहर हारसे सुशोभित स्तनोंको धारण करनेवाली, पट्टस्थ पां. ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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