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। एकविंशं पर्व। मल्लिं शल्यहरं कर्ममल्लजेतारमुनतम् । मल्लिकामोदसदेहं वन्दे सत्कुलपालिनम् ॥१ अथैकदा नराधीशो युधिष्ठिरमहीपतिः । भीमादिभ्रातृसंपूज्यस्तस्थौ सिंहासने मुदा ॥२ चामरैर्वीज्यमानः स नानानृपतिसेवितः । छत्रसंछन्नतिग्मांशू रराजात्र युधिष्ठिरः ॥३ कदाचिनारदः प्राप दिवस्तेषां च संसदम् । अभ्युत्थानादिभिः पूज्यः पाण्डवैः परमोदयैः ।। विधाय विविधां वाग्मी किंवदन्ती विधेः सुतः। पाण्डवैः सह संग्राप तनिशान्तं सुमानसः॥ ददर्श द्रौपदीसब निश्छमा द्युम्नदीपितम् । गवाक्षपक्षसंपन्नं नारदो नरवन्दितः ॥६ तत्रासनसमारूढा प्रौढशृङ्गारसंगिनी । किरीटतटसंनद्धमूर्धा सा द्रौपदी स्थिता ॥७ विशाले तिलकं भाले दधाना हृदये वरम् । हारं सारं च नाद्राक्षीनारदं सा गृहागतम् ॥८ मुकुरे मुखमक्षेण नारदस्पेक्षमाणया । अभ्युत्थानादिकं कर्म न कृतं च तया नतिः ॥९
[ इक्कीसवा पर्व ] जिन्होंने कर्ममल्लको जीता है तथा माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंको नष्ट किया है, जिनका सुंदर देह मल्लिकापुष्पगंधके समान है, जो उत्तम कुलोंका पालन करते हैं, जो अभ्युदय और निःश्रेयस सुखसे उन्नत हैं उन श्री मल्लिनीर्थकरको मैं वन्दन करता हूं ॥१॥ किसी एक समय भीमादि भाईयोंके द्वारा आदरणीय, मानवोंके स्वामी युधिष्ठिर महाराज सिंहासनपर आनंदसे बैठे थे। नौकर उनपर चामर ढारते थे। अनेक राजाओंसे वे सेवित थे। अपने छत्रसे उन्होंने सूर्यको आच्छादित किया था। इस प्रकार राजसभामें राजा युधिष्ठिर विराजे थे ॥२-३॥
द्रौपदीके ऊपर नारदका क्रोध ] इसी समय नारदजी आकाशसे पाण्डवोंकी सभामें आये। महान उत्कर्षशाली पाण्डवोंने उठकर, हाथ जोडकर और उच्चासनादि देकर उनका आदर किया। इसके अनंतर ब्रह्मदेवके पुत्र श्रीनारदजीने पाण्डवोंके साथ अनेक प्रकारके वार्तालाप किये। तदनंतर उत्तम चित्तवाले वे उनके साथ अन्तः पुरमें आये । निष्कपटी मनुष्यवन्दित नारदने खिडकी और सज्जोंसे सम्पन्न, सुवर्णादि धनसे उज्ज्वल ऐसा द्रौपदीका महल देखा। उस महलमें द्रौपदी आसनपर बैठी थी। वह प्रौढ शंगार धारण करने लगी थी। उसका मस्तक किरीटसे युक्त था। अर्थात् अपने मस्तकपर उसने किरीट धारण किया था। विशाल भालपर वह तिलक धारण कर रही थी और हृदयपर उत्तम अमूल्य रत्नोंका हार धारण किया था। इस प्रकार आभूषणों से अपने देहको सजानेके कार्यमें तत्पर होनेसे घरमें आये हुए नारदको उसने नहीं देखा ॥ ४-८ ।। वह द्रौपदी अपना मुख दर्पणमें आखोंसे देख रही थी, इस लिये उठकर नम्रतासे खडे होना आदिक आदरके कार्य और नमस्कार न कर सकी। ऐसे अपमानादिक दोषसे ब्रह्मदेवसुत नारद करुद्ध
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