________________
४३८
पाण्डव पुराणम्
चम्पाधि गते भूमौ विलापं विदधुर्नृपाः । अहो अद्यैव मार्तण्डः प्रचण्डः पतितोऽश्रुतः ॥ त्वां विना को रणे तिष्ठेत्पार्थं प्रति सुसन्मुखम् । तावता च रणे याता नृपा दुःशासनादयः ॥ भीमेनैकेन ते नीता एकोनशतकौरवाः । मृत्युगेहं यथा वृक्षा उत्थितेन सुवहिना || २६६ जुगुर्नृपास्तदा कुद्धाः पश्चास्यः स्म रणे तथा ।
यथा हन्ति गजान्भीमः कौरवान् कौरवं गतान् ॥ २६७
दुर्योधनं तदा कश्विद्वान्धवानां सुपश्चताम् । जगाद भीमसंनीतां दुःखपुञ्जसमां भृशम् || २६८ मस्तके वज्रवल्लभं श्रुतौ तद्वचनं तदा । भूपतेर्भयभीतस्य दुःखेन खिन्नचेतसः || २६९ भ्रातरः पतिता यत्र गतस्तत्र स कौरवः । तं सारथिरुवाचेदं पश्य भ्रातॄन्मृतान्भटान् ॥२७० तदा दुर्योधनोऽपश्यद्भातॄन्मृत्युं गतान्परान् । ग्रहभूतपिशाचानां पिशितैस्तृप्तिकारिणः ।। रणस्यावसरो नास्ति हित्वा प्रधनमुद्धरम् । दुर्योधन गृहं गच्छेत्यवदत्सारथिस्तदा ॥२७२ तनिशम्य नृपश्चित्ते क्रोधौद्धत्यं दधे ध्रुवम् । प्ररुष्य सारथिः प्राह पुनर्भूप वचः श्रृणु ॥ तित्यक्षसि च नाद्यापि दुराग्रह महाग्रहम् । अर्थराज्यं त्वया दत्तं पाण्डवानां न हि प्रभो ॥ शतबन्धुविनाशस्तु समानीतस्त्वया रणे । गजवाजिविनाशस्य प्रमाणं ज्ञायते न हि ॥ २७५
1
शसे धरातलमें गिर पडा है । हे कर्ण, आपके बिना अन्य कौन वीर पार्थके सम्मुख युद्धके लिये अब खड़ा हो सकेगा " ॥ २४३ - २६५ ॥
[ भीमके द्वारा सर्व कौरव - नाश ] उस समय रणमें दुःशासनादिक राजा भी पहुंचे। पर अकेले भीमने वे निन्यानव कौरव, अग्नि जिसप्रकार वृक्षोंको नष्ट करता है वैसे मृत्युके घरमें भेज दिये । उस समय राजा कहने लगे, कि जैसा क्रुद्ध सिंह हाथियोंको मारता है उसी प्रकार भीमने रणमें शब्द करनेवाले - रोनेवाले कौरव मारे ।। २६६ - २६७ ॥ तब कोई मनुष्य दुर्योधनके पास आकर दुःशासन आदि बांधवोंका मरण, जो कि कौरवोंको दुःखकी राशिके समान था, कहने लगा । उसका यह वचन उस समय उसके कानोंपर वज्र के समान प्रतीत हुआ । दुर्योधन राजा भयभीत हुआ और दुःखसे उसका मन खिन्न हुआ। जहां राजा दुर्योधनके भाई पडे हुए थे वहां वह कौरव गया । उसे सारथिने कहा, कि देखिए ये आपके शूर भाई मरे पडे हैं ।। २६८-२७० ॥ उस समय प्रह, भूत और पिशाचोंको अपने मांससे तृप्ति करानेवाले अपने मृत भाईयोंको दुर्योधनने देखा । सारथिने दुर्योधनसे कहा, कि " हे दुर्योधन, अत्र युद्ध करनेका समय नहीं है इस भयंकर युद्धको छोडकर जानाही अच्छा है। " सारथिका वचन सुनकर राजाके मनमें क्रोधाग्नि धधक उठा । सारथिने फिर से मना करते हुए कहा कि “ हे राजन् आप मेरा भाषण सुनें, आप अभीतक दुराग्रहरूपी महाग्रहको छोडना नहीं चाहते हैं । आपने पाण्डवोंको आधा राज्य नहीं दिया है। हे प्रभो, आपने रणमें सौ बंधुओंका विनाश किया है। हाथी और घोडोंके विनाशका तो प्रमाण नहीं जाना जा सकता ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org