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________________ विशतितम पर्व ४३५ तनिशम्य जजल्पाशु पूषपुत्रः परोदयः । किं त्वं जल्पसि रे पार्थाविनीतो जडतां गतः ।। भनज्म्यहं तवाग्रे किं मया ध्वस्ता नृपा रणे । पूर्व प्रहरणं लात्वा देहि मा दुर्वचो वद ॥ अत्रान्तरे जगौ विष्णुर्विश्वसेनस्तवात्मजः । प्रधने पतितः कर्ण तथाभूत्प्राणमुक्तधीः ॥२५४ तन्निशम्य नृपः कर्णो धिक्कारमुखराननः । शुशोच सुचिरं चित्ते दुचिन्तश्चिन्तयान्वितः ॥ जेनीयन्तेत्र राज्यार्थ प्रातरो भ्रातृभिः सदा । तदा दुर्योधनोवोचच्छोचन्तं भानुनन्दनम् शोकस्यावसरो नात्र कर्ण संहन्यतां नरः । हतेन येन जायेत जयश्रीः कौरवेशिनाम् ॥२५७ तन्निशम्य रणे लग्नौ कुद्धौ कर्णार्जुनौ तदा । अन्तरेण विनिर्मुक्तान्क्षिपन्तौ विशिखान्खलु ॥ जगाद केशवः पार्थ विपक्षाञ्जहि सायकैः । तदा पार्थः प्रक्रुद्धात्मा विससर्ज पराशरान् ॥ कर्णस्य करतस्तेन छिन्ने शरशरासने । कर्णनापि तथा छिन्नं धनंजयशरासनम् ।।२६० ।। पार्थो दिव्यास्त्रमादाय जगाद मधुरं वचः । दिव्यास्त्र दिव्यदेह त्वं श्रृणु बाणशरासन | यद्यस्ति त्वयि सत्यत्वं यद्यहं कुलरक्षकः । धर्मजे यदि धर्मोऽस्ति जहीम तर्हि वैरिणम्॥२६२ इत्युक्त्वा स च दिव्यास्त्रं विसाखण्डयत्क्षणात् । कर्णशीर्ष तदा भूमौ कबन्धं बन्धुरं गतम् अर्जुन, तूं क्या कह रहा है ? क्या मैं तेरे आगेसे भाग जाऊंगा ? यह बात कभी भी संभव नहीं। मैंने अनेक राजाओंका युद्ध में नाश-किया है। प्रथम मैं तुझपर प्रहार करता हूं, उसका स्वीकार कर और तू भी मेरे ऊपर प्रहार कर, परंतु ऐसा दुर्भाषण क्यों करता है ? इसी बीच श्रीकृष्णने कहा, कि हे कर्ण, तेरे विश्वसेन नामक पुत्रको युद्धमें प्राणोंसे हाथ धोना पड़ा है। श्रीकृष्णका यह वचन सुन धिक्कारसे जिसका मुख वाचाल बना है ऐसा कर्णराजा दीर्घकालतक शोक करने लगा। चिन्ताओंसे युक्त हुए उसके मनमें इस प्रकार दुष्ट विचार आये। " इस जगतमें राज्यके लिये भाईयोंसे भाई हमेशा मारे जाते हैं। तब दुर्योधन शोक करनेवाले सूर्यराजाके पुत्र कर्णको कहने लगा, कि हे कर्ण, इस समय यहां शोकको अवसर नहीं है। तूं इस अर्जुनको मार । इसको मारनेसे कौरवपतिको जयलक्ष्मी प्राप्त होगी"। वह सुनकर उस समय कर्ण और अर्जुन क्रुद्ध होकर युद्धमें भिड गये और वे दोनों एक दूसरेपर दूरसेहि बाण-वृष्टि करने लगे। केशवने अर्जुनको कहा, कि हे अर्जुन तूं शत्रुको बाणोंसे मार। तब अर्जुनने क्रुद्ध होकर तीक्ष्ण और उत्तम शर कर्णपर छोडे । कर्णका धनुष्य-बाण उसने नष्ट कर डाला । कर्णने भी अर्जुनका धनुष्य विच्छिन्न कर दिया। दिव्य अत्रको धारण कर अर्जुनने मधुर भाषण किया। हे दिव्यास्त्र, हे दिव्य-देह धनुष्य, तूं मेरा भाषण सुन। “ यदि तुझमें कुछ सचाई है और यदि मैं कुलरक्षक हूं, यदि धर्मज-युधिष्ठिरमें धर्म है तो आगे खडे हुए वैरी कर्णको नष्ट कर " ऐसा कहकर अर्जुनने उस दिव्यास्त्रको कर्णपर फेंका। उससे तत्काल कर्णका मस्तक खंडित हो गया। कर्णका सुंदर शरीर जमीनपर जा गिरा। चम्पापुरका नाथ कर्ण भूमिपर गिरतेही राजा इस प्रकार शोक करने लगे। " अहो आजही प्रचण्ड सूर्य आका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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