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विंशतितम पर्व कथं कथमपि प्रायस्तैरगीकारितो हठात् । धर्मात्मजस्तदावोचदश्वत्थामा हतो रणे ॥२३० तदाकर्ण्य रणे द्रोणो धन्वामुश्चच्छुचा करात् । सिञ्चन्कुमश्रुपातेन सरोद हृदि दु:खितः॥ तदा तेन पुनः प्रोक्तं कुञ्जरो न नरो हतः । श्रुत्वेति संस्थितः स्थैर्याच्छोककम्पितकायकः॥ धृष्टार्जुनोऽसिना तावल्लुलाव तस्स मस्तकम् । कौरवाः पाण्डवास्तावगुरुदुस्तत्क्षणे क्षिताः ।। छत्रच्छाया गता चाद्य त्वयि तात गते सति । द्रोणास्माकं क्षितौ जातापकीर्तिः कृतिकृन्तिका दुर्योधनेन यः संगोविहितस्तत्फलं लघु । संप्राप्तं गुरुणावोचक्रुद्धः पार्थस्तदा क्षणे ॥२३५ भो युधिष्ठिर नो भृत्यो धृष्टार्जुनो न श्यालकः । तव तेन हतो द्रोणः कथं सर्वगुरुः शुभः ॥ तदा धृष्टार्जुनः प्राहास्माकं दोषो न जातु चित् । युध्यमानैस्तु युध्यन्ते सुभटैः सुभटा रणे ।। तनिशम्य नरः शान्तस्वान्तो जातो विषादवान् । पुनस्तु साधनं धायाधुद्धं कर्तुं समुद्यतम् ॥ दधाव ध्वनिना व्योम छादयन्ध्वंसयन्क्षितिम् । तावद्धर्मसुतो बाणैः शल्यशीर्ष लुलाव च ॥ विराटाने कृतं येन स्वपराक्रमवर्णनम् । दिव्यास्त्रेण पुनः पार्थोऽवधीद्राजसहस्रकम् ॥२४०
कहूं ? असत्य भाषणसे कर्मबंध करनेवाला पाप उत्पन्न होता है। तब बडे कष्टसे और हठसे उन्होंने प्रायः वैसा बोलना उसने कबूल किया। धर्मात्मजने अश्वत्थामा रणमें मारा गया ऐसा वचन द्रोणाचार्यको कहा। उसे सुनकर आचार्यने शोकसे अपने हाथसे धनुष्य नीचे डाल दिया । हृदयमें अतिशय दुःखित हो और अश्रुपातसे भूतलको सींचते वे रोने लगे। तब धर्मात्मजने फिर कहा, कि अश्वत्थामा नामक हाथी मर गया अश्वत्थामा नामक मनुष्य अर्थात् आपका पुत्र नहीं मरा है। शोकसे कॅप रहा है शरीर जिनका ऐसे आचार्य, युधिष्टिरके ये शब्द सुन कुछ शांत हुए ॥२२२२३२ ॥ धृष्टार्जुनने इतनेमें आकर आचार्यका मस्तक तरवारसे तोड दिया। कौरव और पाण्डव तत्काल दुःखित होकर रोने लगे ॥ २३३ ॥
[ द्रोणाचार्यका मरण और कौरव-पाण्डवोंका शोक ] " हे तात, आपका स्वर्लोक में प्रयाण होनेसे हमारी छत्रच्छाया नष्ट हो गई। हे आचार्य, हमारी कार्यको नष्ट करनेवाली अपकीर्ति फैल गई है। उस समय क्रुद्ध होकर अर्जुनने कहा, कि दुर्योधनके साथ आचार्यने जो सहवास किया, उसका फल उन्हें शीघ्र मिल गया। हे युधिष्ठिर, धृष्टार्जुन तो हमारा नौकर नहीं है और न साला भी है। तो हम सबोंके गुरु और शुभ ऐसे द्रोणाचार्यको उसने क्यों मार दिया है ? तब धृष्टार्जुनने कहा, कि इसमें हमारा कुछ भी दोष नहीं है। रणमें लडनेवाले योद्धाओंके साथ योद्धा लडते हैं अर्थात् हम आपसमें लड रहे थे, अतः मैंने उनको मारा है। तब विषादवाले अर्जुनने मनमें शान्तता धारण की । पुनः कौरवोंका सैन्य उद्धत होकर युद्ध के लिये उद्युक्त हुआ ॥२३४-२३८॥ अपनी ध्वनिसे आकाशको गूंजा देनेवाला और भूमिको ध्वस्त करनेवाला युधिष्ठिर दौडता दुआ शस्यके पास गया और उसने बाणोंसे शल्यका सर तोड. डाला || २३९ ।। विराटराजाके समीप
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