________________
विंशतितमं पर्व
४३३
तदा भानुसुतोऽवोचन्मा विषादं व्रजाधुना । प्रथम मारयिष्यामि पार्थं पश्चात्परान्नृपान् ॥ तदा कर्णार्जुनौ लौ योद्धुं संक्रुद्धमानसौ । युधिष्ठिरेण संलग्ना योद्धुं सर्वेऽपि कौरवाः || २०६ रुन्धन्तं प्रधने योधाः शरैर्गगनमण्डलम् । चक्रिरे बधिराः काष्ठाः कष्टानिष्टमुपागताः ।। २०७ कर्णस्य स्यन्दनो भग्नः पार्थेन पृथुचेतसा । सगुणश्च धनुश्छिन्नः सरद्भिर्विशिखैः खलु ॥२०८ द्रोणः स्यन्दनमारुह्य धृष्टार्जुनं समाह्वयत् । धृष्टद्युम्नः करिष्यामि मृतिं तेऽहं गुरुं जगौ ॥ २०९ इत्युदीर्य शरैश्छिन्नो धृष्टद्युम्नेन सद्गुरुः । आगच्छन्तः शराश्छिन्ना गुरुणा गुरुणा गुणैः ॥ ध्वजो रथस्तथा छिन्नो धृष्टद्युम्नस्य तेन वै । विंशतिं च सहस्राणि क्षत्रियाणां जघान सः ॥ गजानां वाजिनां संख्यां हतानां वेत्ति कः पुमान् । लक्षैकं सुभटास्तेन पातिताः पतिता भुवि ।। एका चाक्षौहिणी ध्वस्ता गुरुणा तावदुत्थितः ।
व्योम्नि स्वरः सुराणां हि द्रोणं संवारयन्निति ॥ २१३
अतिमात्रं कियन्मात्रं कुरुषे किल्बिषं भृशम् । नृपैः सह विरोधस्तु त्वया किं भो विधीयते ॥ आगच्छ स्वच्छतां लात्वा ब्रह्मेन्द्रो भव भव्य भोः । भीमभाणीत्तदा विप्र किं करिष्यसि किल्बिषम् ॥ २१५ पाण्डवेभ्यः कुरून्दत्त्वा सुखितो भव सद्गुरो | श्रुत्वैवं ब्राह्मणोऽवादीत्तेभ्यो दास्यामि तद्धराम् ।।
अर्जुन आपसमें लडने लगे । युधिष्ठिर के साथ सर्वही कौरव लडने लगे । युद्ध में बाणोंसे आकाशमंडलको ढकनेवाले, कष्ट और अनिष्टको प्राप्त हुए योद्धाओंने सब दिशाओंको बधिर किया । उदार चित्तवाले अर्जुनने छोडे गये बाणोंसे कर्णका रथ भग्न किया । और डोरीके साथ उसका धनुष्य तोड दिया ॥ २०६-२०८ ॥ द्रोणाचार्यने रथमें आरूढ होकर धृष्टार्जुनको लडनेके लिये बुलाया । धृष्टार्जुन ने कहा, कि ' हे गुरो, मैं आपको मारनेवाला हूं। ऐसा बोलकर धृष्टद्युम्नने बाणोंसे गुरुको आच्छादित किया । गुणोंसे गुरु अर्थात् गुणोंसे पूज्य ऐसे द्रोणाचार्यने आनेवाले बाणोंको तोड दिया। आचार्यने धृष्टद्युम्नका रथ, और ध्वज तोड दिया । आर वीस हजार क्षत्रियोंको उन्होंने मार दिया । मारे हुए हाथियोंकी और घोडोंकी संख्या तो कौन जानता है ? एक लाख शूर योद्धाओंको उन्होंने गिराया और वे सब मर गये। एक अक्षौहिणी सेना गुरुने नष्ट की तब आचार्यको ऐसी हिंसासे रोकनेवाली देवोंकी बाणी इस प्रकारसे निकली । " हे द्रोणाचार्य आप कितना प्रमाणको उल्लंघनेवाला पाप कर रहे हैं। यह पाप अतिशय हुआ है । राजाओंके साथ आप क्यों विरोध कर रहे हैं ? आइए अपने परिणामोंमें स्वच्छताको उत्पन्न कर आप ब्रह्मेन्द्रपदकी प्राप्ति कीजिए । भीमने कि हे ब्राह्मण गुरो, आप क्यों पातक कर रहे हैं ? आप पाण्डवोंको कुरुदेश प्रदान करके सुखी हो जाइए। " भीमका यह वचन सुनकर “ मैं कौरवोंको सब पृथ्वी देनेवाला हूं, मेरा जीवन कौरवों को देकर मैं सदा सुखी होऊंगा ? ऐसी प्रतिज्ञा हे सुज्ञ भीम, मैंने अपने मनमें की है ॥ २०९ - पां. ५५
1
कहा,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org