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पाण्डव पुराणम्
श्रुत्वेति केशवोऽवोचच्छङ्कां मा कुरु पाण्डव । सेत्स्यत्यद्याखिलं कार्यं भवतां मङ्गलैः सह || भोक्ष्यसे त्वं परं देशमेककः कुरुजाङ्गलम् । तत्क्षणे प्रणतः पार्थोऽवोचतं धर्मनन्दनम् ॥१०६ आदेशं देहि मे दोष्णोदर्शयामि बलं तव । तदादिष्टो विशिष्टात्मा धर्मजेन धनंजयः ॥ १०७ रथारूढश्चचालामा रथस्थेन स विष्णुना । भयंकराणि तूर्याणि दध्वनुर्युद्धसंगमे ॥ १०८ गजाः सजाः सुहेषाढ्याः हयाः सुभटकोटयः । समाट् रथसंदोहाः कुर्वन्तः सत्कलारवम् ॥ छिन्दन्तो मस्तकान्वैरिव्रजानां रुधिरारुणाम् । कुर्वन्तस्तु धरां धीरा योयुध्यन्ते स्म सद्युधि ॥ पातितैस्तु रथैर्भमै ः पन्थाः पार्थेन सव्यथैः । गर्जद्भिस्तु गजैछिन्महस्तैः संरुरुधेऽयनम् ॥ कबन्धानि च नृत्यन्ति तच्छीषै रञ्जिता धरा । अन्त्रैः संवेष्टिता मर्त्यास्तदाभूवन्महारणे ॥ भटासृजां प्रवाहेन तरन्तो मानवास्तदा । भेजुः स्थितिं न कुत्रापि स्वगाधजलधाविव ॥ ११३ तत्क्षणे भज्यमानं स्वं द्रोणो वीक्ष्य महाबलम् । ददानो धीरणां सर्वान्प्रोवाच चतुरं वचः ॥ मा भज्यन्तां भटा भीता लज्यते येन स्वं बलम् । यत्राहं भवतां भीतिः कुतस्त्या भवत स्थिराः
दीर्घकालसे जंगलमें रहा है; इसलिये तूने ऐसी प्रतिज्ञा की है, जो व्यर्थ होगी। बोलनेवाला आदमी बोलतो जाता है परंतु उसका निर्वाह करना अतिशय दुर्लभ होता है । धर्मराजका भाषण सुनकर श्रीकृष्ण बोले, कि हे पाण्डव, तुम शंका मत करो तुह्मारा सर्व कार्य आज मगलोंके साथ सिध्द होगा। तुम अकेले संपूर्ण कुरुजांगल देशके स्वामी होंगे। उस क्षणमें अर्जुनने धर्मराजको नमस्कार किया और धर्मराज बोले, कि हे प्रभो, मुझे आप आशीर्वाद दीजिये। मैं आपको मेरे बाहुओंका बल दिखाऊंगा । तब विशिष्टात्मा धनंजयको धर्मराजने आज्ञा दी । रथमें आरूढ होकर रथमें बैठे हुए विष्णु के साथ अर्जुन चला । युध्दके प्रारंभ में वाद्य बजने लगे । गज सज्ज होगये । हाँसनेवाले घोडे सन्न होगये और कोट्यवधि शूर युध्दके लिये रणभूमिमें चलने लगे । गजादिकोंके समूह उत्तम मधुर आवाज करने लगे । शत्रुसमूहों के मस्तक तोडनेवाले और पृथ्वीको रक्तसे लाल करनेवाले धीर वीर रणमें खूब लडने लगे । १०३-११० ॥ अर्जुनने गिराये हुए भरोसे मार्ग रुक गया, तथा जिनकी शुण्डायें टूटगई हैं और जो दुःखसे चिंघाड रहे हैं ऐसे हाथियोंसे मार्ग व्याप्त हुआ । रणभूमिमें मस्तकरहित शरीर नृत्य करने लगे । तथा उनके मस्तकोंद्वारा भूमी लाल होगई । उस महायुध्द में सर्व मनुष्य आंतोंसे वेष्टित हुए । अर्थात् रणभूमिवर मरे हुए योधाओंकी आंतोंसे भूमि आच्छादित होनेसे आने जानेवाले योध्दा उससे वेष्टित हो जाते थे। अगाध समुद्र में तैरने के लिये असमर्थ मनुष्य जैसे उसमें कहीं भी स्थिर नहीं होते हैं वैसे योध्दाओंके रक्त के प्रवाह में तैरनेवाले मानव कहीं भी नहीं ठहर सके। उस समय अपना सैन्य भग्न हो रहा है ऐसा देखकर सर्व लोगोंको वीर बंधाते हुए द्रोणाचार्य इस प्रकारसे चतुर वचन कहने लगे । " हे वीरगण, डरकर भाग जाना आपको योग्य नहीं है जिससे अपने सैन्यको लज्जित होना पडेगा । जिस रणभूमिमें
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