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विंशतितम पर्व
४२५ गुरुवाक्येन ते तस्थुः स्थिराश्च सुभटाः स्फुटम् । नरनारायणौ तावनत्वा गुरुमवोचताम् ॥ मद्वचः कुरु भो तात निवर्तय रणाङ्गणात् । स्फेटयावः परं सैन्यं लङ्घयावो गुरुं कथम् ॥ निशम्येति जगौ द्रोणो नोत्सरामि रणादहम् । यो मया रक्षितो मर्त्यः सोऽमरत्वं गतो भुवि ।। इत्युक्ते क्रोधसंरुद्धः संक्रन्दनसुतस्त्वरा । रथारूढश्चचालाशु धनुःसंधानमादधत ॥११९ . तदा समाहता नादास्तूर्याणां भटभीतिदाः । नवबाणैर्हतो द्रोणः पार्थेन बलशालिना ॥१२० द्रोणेन तत्क्षणात्तेऽपि संरुद्धा निजवाणतः। द्विगुणद्विगुणान्बाणान्विससर्ज पुनर्नरः॥१२१ यावल्लक्षप्रमा जाताः पार्थेन प्रेषिताः शराः । द्रोणश्चिच्छेद तान्नूनं स्वशरै रणसंमुखैः।।१२२ तदावोचद्धरिः पार्थ विलम्बयसि किं नर । गुरुशिष्यरणं किं भो युक्तं वै रणसंविदाम् ॥१२३ श्रुत्वा नरः करे कृत्वा कृपाणं कारयन्सृतिम् । गच्छंश्च गुरुणा प्रोचे पृष्ठलग्नेन सत्वरम् ।। . तिष्ठ तिष्ठ क यासि त्वं नरेति जल्पितं गुरुम् । हसित्वा पाण्डवोवोचन्मा कास्त्विं रणं गुरो॥
आपके साथ मैं हूं उसमें आपको भीति कैसी ? आप न भागे-स्थिर हो जावें ।" गुरुके वाक्यसे वे सब योध्दा निश्चित स्थिर हुए। उतनेमें वहां आकर द्रोणाचार्यको नमस्कार कर नर और नारायण बोलने लगे, कि " हे तात, हमारा वचन सुनिए आप रणांगणसे हट जाइए। आप नहीं हटेंगे तो शत्रुसैन्यको हम कैसे नष्ट करेंगे आपको उलंघ कर जाना हमें शक्य नहीं दीखता है।" उन दोनोंका भाषण सुनकर द्रोण कहने लगे कि “ मैं रणसे नहीं हटनेवाला हूं। जिसका मैंने रक्षण किया है वह मनुष्य इस भूतलमें अमर हुआ ऐसा समझो" ऐसा गुरुका भाषण सुनकर क्रोधसे भरा हुआ इन्द्रपुत्र अर्जुन त्वरासे रथारूढ होकर तथा शीघ्र धनुःसंधान कर युध्दको चलने लगा ॥ १११-११९ ॥
[ द्रोणार्जुन-युद्ध ] उस समय भटोंको भय उत्पन्न करनेवाले वाशेंकी ध्वनि होने लगी। बलशाली अर्जुनने नौ बाण द्रोणके ऊपर छोडे । तत्काल द्रोणाचार्यने अपने बाणोंसे उनकोभी रोक दिया । अर्जुनने दुगुने दुगुने बाण द्रोणाचार्यपर छोडे । ऐसे छोडते छोडते वे बाण लक्षसंख्याप्रमाण हो गये। द्रोणने भी अपने युद्धोन्मुख बाणोंसे अर्जुनके बाण तोड दिये ॥ १२०-१२२ ॥ " हे गुरो हम आपके पुत्र अश्वत्थामाके समान हैं। हमारे साथ आपका युद्ध शोभा नहीं देता है। इसलिये आप युद्धसे लौट जाइये ऐसा अर्जुनका वचन सुनकर द्रोणाचार्य युद्धसे लौटे । उस समय श्रीकृष्णने अर्जुनको कहा, कि हे अर्जुन, तुम विलम्ब क्यों कर रहे हो । रण जाननेवालोंको गुरु और शिष्योंका लडना क्या योग्य जंचता है ? श्रीकृष्णका वाक्य सुनकर और हाथमें तरवार लेकर मार्गको निकालता हुआ अर्जुन जाने लगा। उस समय गुरु उसके पीछे सत्वर जाते हुए बोलने लगे कि "हे अर्जुन ठहरो ठहरो तुम कहां जा रहे हो" ऐसा बोलनेवाले गुरुको अर्जुन हसकर कहने लगा, कि "हे गुरो, आप हमारे साथ मत लडें । क्यों कि अश्वत्थामाके समान हम पाण्डव और विष्णु आपके पुत्र हैं। उनमें कुछ अन्तर
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