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विंशतितमं पर्व
४२३ एको यातु शरत्वं ते द्वितीयस्तु शरासनं । नरनारायणौ तुष्टौ तच्छ्रुत्वा सशरासनौ ॥९३ : छित्वा जयामूर्धानं तत्तातस्तपसि स्थितः । वने प्रविपुले ध्यानी विद्यायाः साधनेच्छया ।। तदञ्जलौ क्षिप क्षिप्रं तस्मिन्क्षिप्ते स पञ्चताम् । यास्यत्येव भवच्छत्रुरन्योपायं च मा कृथा। तन्निशम्य नरस्तुष्टो लात्वा धन्वशरौ परौ । आयातो विष्णुना सत्रं सैन्ये लोकसुखावहः ॥ उजगामार्यमा तावअनान्दर्शयितुं रणम् । उस्थिताः सुभटा योद्धं सबला बलयोर्द्वयोः ॥९७ जयाद्रं धीरयन्द्रोणोऽभाणीद्वत्स सुस्वच्छताम् । व्रज तूष्णीं भर्जस्तिष्ठ करिष्ये तव रक्षणम् ॥ चतुर्दशसहस्राणां गजानामन्तरे त्वरा । द्रोणेन स्थापयित्वा स रक्षितो वररक्षणैः ॥९९ तुरङ्गाणां च लक्षेण संवेष्ट्याऽस्थापयत्स तम् । रथैः षष्टिसहस्रैश्च ततो बाह्ये व्यवेष्टयत्।।१०० लक्षैविंशतिसंख्यैश्च पदिकैस्तस्य रक्षणम् । विधायोवाच सद्रोणः समुद्र इव धीरधीः ॥१०१ जयार्द्ररक्षणं यूयं कुरुध्वं भो महानृपाः । अहं रणमुखे क्षिप्रं क्षेपिष्यामि विपक्षकान् ॥१०२ तदा युधिष्ठिरोज्वोचद्धरिं हरिमिवोद्धतम् । किं काये च करिष्यामो वयं नष्टधियः स्थिताः॥ चिरं त्वं संस्थितोष्टव्यां वृथा पार्थ प्रतिज्ञया । जल्पाको जल्पति स्वैरं निर्वाहो भुवि दुर्लभः॥
अर्जुनने ग्रहण किया। उसमेंसे एक शरपनाको प्राप्त होगा अर्थात् बाण बनेगा और दूसरा धनुष्य होगा। वह सुनकर बाण और धनुष्य से सहित वे नरनारायण आनंदित हुए। जयाईका मस्तक तोडकर घने जंगलमें उसका पिता विद्याको सिद्ध करनेकी इच्छासे तपमें तत्पर होकर बैठा है उसके अंजलिमें जल्दी फेक दो। उसको फेकनेसे आपका उत्कृष्ट शत्रु अवश्य मरेगा आपको अन्योपाय करनेकी जरूरत नहीं है। ऐसा सुख देनेवाला उत्कृष्ट उपाय सुनकर अर्जुन आनंदित हुआ, उत्कृष्ट धनुष्य और बाण लेकर विष्णुके साथ सैन्यमें आया ॥ ८२-९६॥ उतनेमें रात्री समाप्त हुई
और लोगोंको रण दिखानेके लिये सूर्य उदित हुआ। दोनों पक्षके बलवान् योध्दा लडनेके लिये उद्युक्त हुए। अनेक हाथी, घोडे, रथ और पैदलोंसे वेष्टित करके जयाईको रक्षण करनेका अभिवचन द्रोणाचार्यने दिया। और उसके रक्षणार्थ वे युध्दके मुखपर खडे हुए। जयाईको धीर देते हुए द्रोणाचार्यने कहा कि, वत्स, तुम स्वस्थ रहो, चिंता मत करो, मौन धारण करके बैठो। मैं तुम्हारा रक्षण करूंगा। द्रोणाचार्यने चौदह हजार हाथियोंके बीचमें त्वरासे जयाईको स्थापन किया और उत्तम रक्षकोंके द्वारा उसका रक्षण किया। एक लाख घोडोंसे वे वेष्टित कर जयाईकी स्थापना उन्होंने
की। उनके बाहर साठ हजार रथोंके घेरेसे उसको वेष्टित किया। और वीस लाख पैदलोंसे उसका रक्षण करके समुद्रके समान धीर बुध्दिवाले द्रोणाचार्य कहने लगे कि हे महानृपगण, मैं रणके मुखपर शत्रुओंको शीघ्र नष्ट करूंगा ।। ९७-१०२ ॥
. [ श्रीकृष्णने धर्मराजका समाधान किया ] उस समय युधिष्ठिरने सिंहके समान उध्दत हरिको-श्रीकृष्णको कहा, कि हम क्या कार्य करेंगे हमारी बुद्धि नष्ट हुई है। हे अर्जुन तू
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