________________
४२०
पाण्डवपुराणम् हा भीम भूपते भव्य त्वया कि स न पालितः । हा धनंजय धन्यात्मन्यधि धीर न रक्षितः हा जनार्दन मे भ्रातर्जन्ये जनभयंकरे । न रक्षितः सुतः किं भो मम प्राणसमो महान् ॥५८ केनापि न धृतो बालो बलवान्विपुलो गुणैः । सर्वस्मिनगरे लोका दुःखितास्तद्वियोगतः॥ बान्धवो मे धराधीशो माधवो विधुरातिगः । ज्येष्ठो युधिष्ठिरो ज्येष्ठः श्रेष्ठो भीमो ममोत्तमः पतिः पार्थस्तु भूपीठे पाता पावनमानसः । तथापि क्रन्दनं प्राप्ता दुःखिताहं विमर्दिता ॥६१ तदा दीर्ष समुच्छस्य पार्थः प्रोवाच भो प्रिये । शृणु मे वचनं पथ्यं तथ्यं सर्वमतिप्रदम् ।। संजयार्द्रकुमारस्य मूर्धानं नो लुनामि चेत् । प्रविशामि तदा वह्नौ न सहे सुतदुर्मुतिम् ॥६३ रुदित्वालं गृहीत्वा त्वं जलं क्षालय चाननम् । हरिबभाण भगिनि शोकं संहर सत्वरं ॥६४ संसारश्चञ्चलचित्रं चञ्चूर्यन्ते जना भृशम् । सुखैदुःखैः सदा क्षिप्ता भ्रमन्तो यत्र दुःखिताः॥ संसारेऽत्र गताः पूर्व पुरुषाः पावनाः परे । इतस्ततः पतन्तश्च समर्थाः स्वं न रक्षितुम् ॥६६ अरहट्टघटीयन्त्रसदृशे संसरञ्जनः । संसारे न स्थिरः कोऽपि भवितव्यतया वृतः ॥६७
युद्धधीर हे धन्यात्मन् धनंजय, आपने उसका रक्षण क्यों नहीं किया है ? मेरे प्राणतुल्य, शूर ऐसे पुत्रकी लोगोंको भय उत्पन्न करनेवाले युद्धमें हे भाई कृष्ण, आपने क्यों नहीं रक्षा की ? जिसमें विपुल गुण थे ऐसा मेरा बलवान् पुत्र किसीके द्वारा भी नहीं धारण किया गया ? अर्थात् किसीने भी उसका संरक्षण नहीं किया ? संपूर्ण नगरमें उसके वियोगसे लोग दुःखित हुए हैं। मेरा भाई श्रीकृष्ण संपूर्ण पृथ्वीका स्वामी है। वह इष्ट-वियोगसे पूर्ण रहित है। मेरे जेठ देवर युधिष्ठिर श्रेष्ठ पुरुष हैं, तथा भीम उत्तम पुरुष हैं। मेरे पति अर्जुन पवित्र मनवाले और भूपृष्ठपर जनरक्षक हैं। ऐसे ये सब मेरे रक्षक होनेपर भी म रुदनको प्राप्त हुई हूं, दुःखित हुई हूं तथा शोकसे मर्दित हुई हूं" ॥ ५४-६१ ॥ उस समय दीर्घ श्वास लेकर अर्जुन अपनी प्रियाको कहने लगा की “ हे प्रिये, मेरा हितकर, सत्य और बुद्धि देनेवाला वचन सुन । जयाद्रकुमारका मस्तक यदि मैं नहीं तोडूंगा तो मैं • अग्निमें प्रवेश करूंगा। मेरे पुत्रके दुर्मरणको मैं सहनेवाला नहीं हूं। अब तूं रोना बंद कर और पानी लेकर अपना मुह धो डाल ।” उस समय कृष्णने अपनी बहनको ऐसा उपदेश दियाश्रीकृष्णने कहा- “हे भगिनि, तू अपना शोक सत्वर दूर कर दे । यह संसार चंचल और आश्चर्यकारक है । इसमें लोग अतिशय नष्ट होते हैं। इसमें सुखदुःखोंसे पीडित होकर दुःखसे चतुर्गतिमें भ्रमण करते हैं। इस संसारमें पूर्वकालमें उत्तम पवित्र पुरुष चले गये हैं नष्ट हुए हैं। दूसरे बुरे लोग भी कभी किस गतिमें तो कभी किस गतिमें गिरते हैं- उत्पन्न होते हैं। वे पुरुष अपना संरक्षण करनेमें समर्थ नहीं होते हैं। रहटकी घडियोंके समान संसारमें घुमनेवाला कोई भी जन स्थिर नहीं है। सब भवितव्यतासे घिरे हुए हैं" इस प्रकारसे माधवने अपनी बुद्धिसे अपनी बहनको समझाया ॥ ६२-६७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org