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________________ विंशतितमं पर्व ४२१ इति संबोधिता बुद्धया माधवेन स्वसा निजा । तावत्केनापि संप्रोक्तं जयार्द्रस्य हितार्थिना ।। पार्थेन विहिता भद्र प्रतिज्ञा मरणकृते । तव त्वं यासि शक्रस्य शरणं तर्हि न स्थितिः ॥६९ निश्चिन्तः किं स्थितस्त्वं हि मरणे समुपस्थिते । निशम्येति चिरं चित्ते जयार्द्राऽचिन्तयत्तराम् ॥ वैवस्वत इव क्रुद्धोऽवश्यं वृद्धश्रवःसुतः । लविष्यति निजं शीर्ष प्रभाते पदुमानसः ॥७१ गत्वा दुर्योधनाभ्यर्ण जयार्द्रा वचनं जगौ । भीतोऽहं विपिनं गत्वा ग्रहीष्यामि तपोऽनघम् ॥ यत्रार्जुनभयं नैव श्रोष्यामि श्रवसोः सदा । यः क्रुद्धो धनुषं धृत्वा युद्धे तिष्ठेत्कदाचन ॥ तदा सुरासुरा नैव स्थातुं तत्संमुखं क्षमाः । द्रोणः श्रुत्वा बभाणेति सुमते श्रृणु मद्वचः ॥ नकोऽप्यस्ति जगत्यां हि नरोऽहो अजरामरः । शोभते क्षत्रियाणां नाभ्यागमाद्भञ्जनं भुवि ॥ कृतशक्तेस्तु नुः शीर्षं याति चेद्यातु किं भयम् । जयतो जयलक्ष्मीश्र जनानां जायते लघु ॥ अद्यास्तमनवेलायां सव्यसाची मरिष्यति । हनिष्यति नरस्त्वां कस्ततो भव सुनिश्चलः ॥७७ निशम्येति स्थितः स्थैर्याज्जयार्द्रा जयवाञ्छया । रजन्या निर्गमे जाते धनंजयचरेण हि ॥ ७८ कश्चित्पृष्टः कथं लक्ष्यो जयार्द्रस्य रथो रणे । सोऽवोचत्पृथुभूपालैर्व्यूहो हि विहितो महान् । विषमे यत्र वै वेष्टुं कोऽपि शक्नोति नो सुरः । तं निशम्य नरः प्राह यदि रक्षन्ति तं सुराः ॥ 1 [ द्रोणाचार्यका जयार्द्रको आश्वासन ] जयार्द्रका हित चाहनेवाले किसी मनुष्यने उसे कहा, कि "हे भद्र, अर्जुनने तुझे मारने की प्रतिज्ञा की है । अब तू इंद्रको शरण जानेपर भी तेरी रक्षा नहीं होगी इस लिये तू मरण समीप आनेपर भी निश्चिन्त क्यों बैठा है ? " यह हितार्थी मनुष्यका वचन सुनकर जयार्द्र मनमें अतिशय चिंतित हुआ । यमके समान, चतुरमनवाला, इन्द्रका पुत्र - ३ - अर्जुन अवश्य प्रातःकाल मेरा मस्तक काट लेगा ऐसा विचार करके जयार्द्र दुर्योधनके पास जाकर कहने लगा कि, " मैं भयभीत हुआ हूं। अब अरण्यमें जाकर निर्दोष तप धारण करूंगा। वहां मैं मेरे कानों में अर्जुनका भय नहीं सुनूंगा। जो अर्जुन क्रुद्ध होकर युद्धमें जब कभी खड़ा हो जाता है। तब देव और असुर उसके सामने खड़े होने में असमर्थ होते हैं । द्रोणने कहा, कि ' हे सुमते मेरा वचन सुन। इस जगतमें कोई भी मनुष्य अजर और अमर नहीं है । क्षत्रियोंको युद्धमेंसे लौट जाना बिलकुल नहीं - शोभता है। जो समर्थ पराक्रमी है उसका मस्तक चला गया तो जाने दो कुछ डरनेकी बात नहीं है। जयसे जयलक्ष्मी लोगोंको शीघ्र प्राप्त होती है । अर्थात् यदि युद्ध में अपनी जीत हुई तो जयलक्ष्मी भी प्राप्त होती है। आज सूर्यास्त के समय अर्जुन मर जायगा फिर तुझे कौन मनुष्य मारेगा? अतः तू निश्वल हो " ऐसा द्रोणका वचन सुनकर धैर्यसे जयार्द्र जयकी इच्छा से स्थिर रह गया । रातकी समाप्ति होनेपर धनंजयके दूतने किसीको पूछा की जयार्द्रका रथ कैसे पहचाना जायगा ? तब उसने कहा कि राजाओंने एक बडा व्यूह रचा है, उस विषम व्यूहमें कोई देव भी प्रवेश नहीं कर सकता है । उस वृत्तको सुनकर अर्जुनने कहा, कि यदि उस व्यूहकी देव भी रक्षा करेंगे तो भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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