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________________ ४१८ पाण्डवपुराणम् इत्युक्ते निर्जने नीतोऽभिमन्युर्मन्युवर्जितः । द्रोणादिभिः स्थितः सोऽपि चैतन्यं चिन्तयभिजम् ।। कषायकाययोः कृत्वा सल्लेखनां जिनान्स्मरन् । क्षान्त्वा सर्वजनांस्तूर्ण मुमोच मलिनां तनुम् ॥ स स्वर्गे संगतो देहं समीहापरिवर्जितः । विक्रियावधिसंयुक्तं दिव्यं वरगुणोत्करम् ॥३६ ज्ञात्वाथ कौरवा भूपा दुर्योधनपुरस्सराः । कुमारमरणं हृष्टाः प्राप्ता वादित्रनिस्वनान् ॥३७ निशीथिन्यथ निःशेषं रणं वारयितुं द्रतम् । आजगाम प्रकुर्वाणोत्सवं च कौरवे बले ॥३८ तदा जानार्दने सैन्ये रुरुदुर्निखिला नृपाः । विलापमुखराश्वाश्रुधारासंधौतसन्मुखाः ॥३९ तस्य मृत्युं निशम्याशु मुमूर्च्छ धर्मनन्दनः । पपात पृथिवीपीठे कुलशैल इवोलतः ॥४० कथं कथमपि प्राप्य चेतनां धर्मनन्दनः । रुरोद करुणाक्रान्तखरं संभाषयनिति ॥४१ हा पार्थपुत्र कोन्योऽत्र त्वत्समः संगरोद्धरः । एकोऽनेकसहस्राणि हन्तुं शक्तो नरेशिनाम् ॥ स द्वादशसहस्राणि जालंधरमहेशिनाम् । हत्वा हन्त जयं प्राप्तो हतस्त्वं केन पापिना ॥४३ तावत्पार्थः समायासीद्धर्मपुत्रसमीपताम् । प्रगुणः शोकसंतप्तः श्रुत्वाथ करुणस्वरम् ।।४४ पार्थः प्रोवाच भो भ्रातः समायाताः समुन्नताः । कुमाराः किं न पश्यामि स्वसुतं सुतरांशुभम् ।। कोपरहित अभिमन्युको द्रोणादिक निर्जन स्थानपर ले गये। वहां अपने चैतन्यस्वरूपका वह चिन्तन करने लगा। कषाय और शरीरका त्याग कर अर्थात् सल्लेखना कर और जिनेश्वरोंका स्मरण करके तथा सर्व लोगोंको शीघ्र क्षमाकर उसने इस मलिनदेहका त्याग किया । इच्छारहित-निदानरहित वह अभिमन्यु स्वर्गमें विक्रिया और अवधिज्ञानसे युक्त, दिव्य, अणिमा महिमादि गुणसमूहोंसे युक्त ऐसे शरीरको प्राप्त हुआ ॥३२-३६ ॥ दुर्योधन मुख्य जिसमें हैं ऐसे कौरवराजा कुमारका मरण जानकर आनंदित हुए और अनेक वाद्य उन्होंने बजवाये । इसके अनंतर संपूर्ण युध्द बंद करनेके लिये रात्री शघ्रि आई । कौरवोंके सैन्यमें उत्सव चाल हुआ॥३७-३८॥ उससमय विलापयुक्त शब्द करनेवाले, अश्रुधारासे जिनका मुख धुल गया है, ऐसे सर्व राजा रोने लगे । अभिमन्युकी मृत्यु सुनकर ऊंचे कुल-पर्वतके समान धर्मराजा शीघ्र मञ्छित होकर पृथ्वीपर गिर गये ॥ ३९-४० ॥ बडे कष्टसे धर्मराजकी मूर्छा दूर हो गई और चेतनाको प्राप्त होकर बोलते हुए वे करुणाके स्वरसे रोने लगे। हे अर्जुनपुत्र, अकेला होकरभी तूने अनेक हजार राजाओंको नाश किया है । तुझसरिखा युद्धचतुर इस जगतमें दूसरा कौन है ? जालंधर राजाओंके बारह हजार लोग नष्ट करके तूने जय प्राप्त किया है । ऐसा तू किस पापीके द्वारा मारा गया है ?" इस प्रकार. धर्मराज शोक करने लगा इतनेमें अर्जुन आकर धर्मराजको इस प्रकार कहने लगा" हे भाई अपने उन्नतिशील सभी कुमार आये हैं परंतु मेरा अतिशय शुभविचारवाला पुत्र क्यों नहीं दीखता है ? क्या किसी वैरीने मेरे पुत्रको मारा है ? अथवा चक्रव्यूहमें वह मर गया ?" इसके उत्तरमें धर्मराज बोले " भाई अर्जुन, सुन क्षात्र-धर्मको छोडकर. सब मनुष्योंने तेरा बाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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