________________
विंशतितमं पर्व
४१७ कर्णोऽप्राचीगुरुं द्रोणं लक्ष्मणप्रमुखा रणे । कुमारा मरणं नीताः पार्थजेन सहस्रशः ॥२३ न हन्तुं कोऽपि शक्नोत्यभिमन्यु मन्युमानसम् । कदाचिन्मियते पार्थो नायं कालेऽपि संयुगे ।। श्रुत्वा द्रोणो बभामेदं हन्यते यो न भूभुजा । एकेन रणशौण्डेन स केन वद हन्यते ॥२५ कृत्वा कलकल सैन्यं संमेल्य मिलितान्नृपान् । हन्यतां हन्यतां चायं छिद्यतामस्य सद्धनुः ।। इति द्रोणवचः श्रुत्वा कृत्वा कोलाहलं नृपाः । न्यायक्रमं विमुच्याशु तेन योद्धं समुद्ययुः ।। एकेन तेन ते सर्वे आहवे निर्जिताः क्षणात् । पुनरुधम्य ते सर्वे सोत्कण्ठा योद्धमयताः ॥२८ कुमारस्य रथन्छिनः सपताकः परैर्नृपैः । लष्टिदण्डं समादाय कुमारस्तानचूरयत् ॥२९ स जयार्द्रकुमारस्तु कुमारं तं महाशरैः । अताडयत्तथा भूमौ स पपातातिदुःखितः ॥३० स स्थिरः संस्थितो भूमौ तदा हाहारवोजनि । देवैः कृतो नृपैः प्रोक्तमन्यायोऽयं नृपैः कृतः कर्णेनोक्तं कुमार त्वं पयः पिब सुशीतलम् । सुमना अभिमन्युस्तु निर्मलं वचनं जगौ ॥३२ न पिवामि पयो नूनं वरिष्येऽनशनं नृप । करिष्यामि तनुत्यागं स्मृत्वाहं परमेष्ठिनः ॥३३
द्रोणको पूछा कि "हे आचार्य, अर्जुनपुत्रने लक्ष्मणकुमार जिसमें मुख्य है ऐसे हजारों कुमार मारे हैं । ऋद्ध हुआ है मन जिसका ऐसे अभिमन्युको कोईभी मारनेके लिये समर्थ नहीं हो सकता। कदाचित् अर्जुन इस युद्धमें मरेगा परंतु यह कालके समान इस युद्धमें न मरेगा । यह कर्ण वचन सुनकर द्रोणने इस प्रकार कहा-रणचतुर ऐसे एक राजाके द्वारा यदि यह नहीं मारा जाता है तो बोलो किससे मारा नायगा ? ॥२३-२५॥
[जयाईकुमारसे अभिमन्युका वध ] सब मिलकर अभिमन्युको मारो ऐसी द्रोण की आज्ञा होने पर सब राजा मिलकर अन्यायसे लडने लगे। तब कलकल करके राजाओंने सब सैन्य एकत्र किया । मिले हुए राजाओंको “ द्रोणने कहा, कि इस अभिमन्यु को भारो मारो इसका उत्तम धनुष्य तोडो" ऐसा द्रोणका पचम सुनकर तथा कोलाहल करके राजा न्याय-क्रमका उल्लंघन करके अभिमन्युके साप लखने के लिये उद्युक्त हुए । परंतु उस अकेले अभिमन्युने युध्दमें उन सब को पराजित किया । फिर उथम करके उत्कंठासे वे लड़नेके लिये उद्युक्त हुए। उन्होंने पताकाके साथ कुमारका रथ तोड दिया । तब लष्ठिदण्ड हायमें लेकर उसने राजाओंको चूर किया ॥२६-२९॥
- [ अभिमन्यु को समाधि-मरणसे देवत्वप्राप्ति ] जयाईकुमारने महाशरोंसे अभिमन्युको ऐसा विध्द किया, कि उससे वह अतिशय दुःखित होकर जमीनपर गिर पड़ा । वह जमीनपर स्थिर होकर बैठ गया तब हाहाकार हुआ। देवोंने तथा न्यायी राजाओंने कहा, कि राजाओंने यह अन्याय किया है। ३०-३१।। कर्णने कहा कि "हे कुमार शीतल पानी पिओ" तब गुम मन. वाले अभिमन्युने निर्मळ क्चन कहा, कि मैं पानी नहीं पिऊंगा। हे राजन् , मैं अनशन उपवास धारण करूंगा । मैं परमेष्टियोंका स्मरण करके शरीरपरका मोह छोड देता हूं।" ऐसा बोलनेपर ___पां.५५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org