SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है। ये कथाएं मूलतः किसी एक धर्म, सम्प्रदाय अथवा जनसमुदायकी सम्पत्ति नही रहीं। वे जन-निधिके अंगही हैं, और सभीने उनका अपनी अपनी रुचि, समझदारी एवं आवश्यकतानुसार उपयोग किया है। इसमें कभी कोई ऐतिहासिक तथ्य व सत्यके बन्धनका अनुभव नही किया गया। इसी कारण स्वयं हिन्दू पुराणोंमेंही अनेक घटनाओं व नामादिके सम्बन्धमें विषमताएं पाई जाती हैं। जैन साहित्यमें भी कौरव-पाण्डवोंकी कथाका गौरवपूर्ण स्थान है। बलराम और कृष्ण दोनो त्रेसठ-शलाका-पुरुषोंमें गिने गये हैं। एक बलभद्र और दूसरे नारायण थे। इस निमित्तसे उनका जैन पुराणमें अच्छा वर्णन किया गया है। कारव-पाण्डवोंका कथानक जैनसाहित्यमें विधिवत् शक संवत् ७०५ में रचित जिनसेनकृत हरिवंशपुराणमें पाया जाता है। तत्पश्चात् जिनसेन और गुणभद्रकृत महापुराणमेंभी उक्त कथानक सम्मिलित है । अपभ्रंश भाषाके आदिकवि स्वयंभूने अपने 'हरिवंस पुराणु ' मेंभी इस कथाका अच्छा वर्णन किया है। तथा हेमचन्द्राचार्यके त्रिषष्टिचरितमेंभी यह कथा वर्णित है। किन्तु पाण्डवोंकी कथा स्वतंत्ररूपसे देवप्रभसूरिने अपने पाण्डव-चरित्रमें वर्णन की है। इस ग्रंथकी रचना विक्रम संवत् १२७० में पूर्ण हुई थी। प्रस्तुत ग्रंथ शुभचन्द्र भट्टारक द्वारा वि. सं. १६०८ में रचा गया है। प्रस्तावनामें और विशेषतः ग्रंथके स्वाध्यायसे पाठक देखेंगे कि इस कथामें हिन्दू पुराण सम्मत कथासे तो पद पद पर भेद है ही, किन्तु अन्य उपर्युक्त जैनपुराणकारोंकी रचनाओंसेभी भेद है। इससे पाठकोंको आश्चर्य नहीं होना चाहिये। पुराणकारको कथा एक साधनमात्र है जिसकेद्वारा वह अपने साध्य विषयका उपदेश देना चाहता है, और इस कार्यमें वह अपने पूर्व ग्रंथकारोंका अनुकरण करने न करने अथवा अपनी रुचि अनुसार घटनाचक्रको बदलनेमें स्वतंत्र मानता है। __प्रस्तुत ग्रंथके मूल संस्कृत पाठका सशोधन सम्पादन एवं उसका हिन्दी अनुवाद शोलापुरनिवासी पं. जिनदास शास्त्रीने किया है। शास्त्रीजी जैनसमाजके वयोवृद्ध विद्याव्यसनी विद्वान हैं। उनका ब्रह्मचारी जीवराजजीके साथ शास्त्रस्वाध्याय निरन्तर चलता रहता है। उनकी मातृभाषा मराठी होते हुएभी उन्होने जो इस ग्रंथका हिन्दीमें अनुवाद किया वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। इस अवस्थामें यदि कहीं इसमें हिन्दी महावरेसे विसंगति दिखाई दे तो आश्चर्य नही । आश्चर्य तो यही है कि शास्त्रीजीने हिन्दी अनुवादका कार्य इतनी कुशलतासे सम्पन्न किया है। उनके इस सम्पादन व अनुवादकार्यके लिये वे हमारे धन्यवादके पात्र हैं। हमें यह कहते हुए बड़ी प्रसन्नता है कि जैन संस्कृति संरक्षक संघके संस्थापक ब्रह्मचारी जीवराजजी ग्रंथ-प्रकाशन-कार्यमें खूब तन, मन, धनसे तल्लीन हैं और इस कार्यको जितना हो सके विस्तृत व गतिशील बनाने के लिये उत्सुक रहते हैं। हमारी भावना है कि वे चिरायु हों जिससे जिनवाणीकी सेवाका यह उपकार वृद्धिशील होता रहे। कोल्हापुर और नागपुर आ. ने. उपाध्ये. सितंबर १९५४ हीरालाल जैन. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy