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पाण्डवपुराणम्
स कोदण्डं करे कृत्वा केशवो वैरिणोऽचलत् । तावनिशाचरो भूत्वा कथिदायाद्यप्रदः ॥ कि युध्यसे त्वमत्राहो वसुदेवो नभोऽङ्गणे । पतितस्तं विना खेटाघेलुः संगरभूमिधु ॥१३७ इत्युक्त्वा पक्षविशिखमक्षिपत्स जनार्दनम् । विष्णुना शिखिवाणेन भियते स्म द्रमाशुगः ॥ खेचरेण क्षणात्क्षिप्तःक्ष्माभृद्वाणो दृषत्प्रदः । हरिणाशनिबाणेन स रुद्धः प्रपलायितः ॥ तदा नरैः सुरैः सर्वैः शंसितो विष्टरश्रवाः । पुनः सोऽपि हरिं नत्वा बभाण भुवि संभ्रमन् । द्वितीयोऽयं नरेन्द्रात्र खगो यावच्छिनत्ति न । ध्वजं छत्रं रथं वापि तावत्वं याहि संगरात् ।। निष्कारणं कथं कृष्ण करिष्यसि महारणम् । जरासंधशिरः शीघं लुनीहि निजचक्रतः ॥ यशो य जगत्यत्र वृथा कि लोकमारणैः । निशम्येति जगादैवं माधवः कुद्धमानसः॥१४३ वराको निर्जितो यावन्मया नायं महारणे । जीयते कि जरासंधस्तावत्कि भुज्यते मही॥ इत्युक्त्वा हरिणा खेटः शल्येन नन्दकासिना । द्विधाकृत्य हतो भूमौ पपात प्राणवर्जितः ॥ लक्षितं जयलक्ष्म्या तं पुष्पवृष्टिं ववर्षे च । सुरसंघः खविनौषघातकं मधुसूदनम् ॥१४६
लिये कौन समर्थ है।" ऐसे श्रीकृष्णके वचनसे वह दुष्ट बुद्धिवाला मायापुरुष वहांसे भाग गया ॥ १२७-१३५ ॥ वह केशव हाथमें धनुष्य लेकर वैरियोंसे लडनेको गया। इतनेमें कोई भयप्रद राक्षसका रूप धारण कर कृष्णके समीप आकर उसे कहने लगा-हे कृष्ण तू क्यों यहां युद्ध कर रहा है ? उधर विद्याधरके क्षेत्रमें आकाशांगणके युद्धमें वसुदेव पराजित हुए हैं और उनके विना विद्याधर युद्ध-भूमिमें चले गये हैं।" ऐसा बोलकर उसने कृष्णके ऊपर वृक्षबाण छोडा, विष्णुने उसके ऊपर अग्निबाण छोडा जिससे वह वृक्षबाण छिन्न हुआ। उस विद्याधरने पत्थरोंको गिरानेवाला पर्वतबाण तत्काल कृष्णपर छोडा और कृष्णने वज्रबाणसे उसे जब रोक लिया तब वह वहांसे भाग गया । उस समय सर्व मनुष्य और विद्याधरोंने कृष्णकी प्रशंसा की। पुनः वही निशाचर कृष्णके पास आया और नमस्कार कर कहने लगा कि “ हे कृष्णराजेन्द्र, इस दूसरे विद्याधरने जबतक आपका ध्वज, छत्र अथवा रथ नहीं तोडा है तबतक आप युद्धसे निकल जाइए, इसके साथ व्यर्थ क्यों महायुद्ध कर रहे हैं । आप जरासंधके पास जाकर उसका मस्तक अपने चक्रसे तोड डालिए तथा इस जगतमें यशःप्राप्ति कीजिए। व्यर्थ अन्यलोगों को मारनेसे क्या फायदा है ?" उस विद्याधरका भाषण सुनकर माधवका मन करुद्ध हुआ और वह कहने लगा कि, ' जबतक मैं इस तुच्छ विद्याधरको इस महारणमें नहीं जीत सकूँगा तबतक जरासंध मुझसे कैसा जीता जायेगा? और तबतक पृथ्वीका उपभोग मैं कैसा ले सकता हूं।" ऐसा बोलकर शल्यविद्याधरके साथ राक्षसरूप धारण करनेवाले विद्याधरके भी नन्दक तरवारीसे दो टुकडे कर श्रीकृष्णने उनको मार दिया । वह प्राणरहित होकर भूमिपर गिर पडा। अपने विघ्नोंके समूहका नाश करनेवाले और जयलक्ष्मीसे शोभनेवाले मधुसूदन-श्रीकृष्णपर देवोंने पुष्पवृष्टि की ॥ १३६-१४६ ॥ श्रीकृष्णने
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