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एकोनविंशं पर्व
४०३ हरिणाथ बलः प्रोक्तश्चक्रव्यूहस्तु दुर्धरः । भिद्यते समुपायेन केन संचिन्त्यता लघु ॥१४७ विष्णुस्ततत्रिभिः शूरैर्गत्वा संगरसंगरी । चक्रव्यूहं बभञ्जाशु दम्भोलिः पर्वतं यथा ॥१४८ जरासंधस्तदा क्रुद्धो भटान्दुर्योधनादिकान् । त्रीन्परान्प्रेषयामास शत्रुसंघातहानये ॥१४९ पार्थो दुर्योधनेनामा रथनेमिर्महाहवे । विरूप्येन च सेनान्या युयुधे धर्मनन्दनः ॥१५० परस्परं तदा लमा भटा हुंकारकारिणः । चूर्णयन्तो गजानश्वान्रथान्युयुधिरे चिरम् ॥१५१ शूरास्तदा सुसंनद्धाः कातराश्च पलायिताः । नारदाद्याः सुरौघेण जहर्षुर्नटनोद्यताः॥१५२ दुर्योधनो जगौ पार्थ त्वं वह्नौ भस्मितो मया । वृथा वहसि किं गर्व निर्लजः किं नु सजितः।। धनुरास्फालयामास पार्थः श्रुत्वा स्फुरद्गणम् । गर्जन् प्रलयकालस्य मेघौघ इव विघ्नहृत् ।। आच्छाद्य शरसंघातैः कौरवं स धनंजयः । चिच्छेद तद्धनुर्मध्ये जालंधरः समाययौ ॥१५५ विषमः समरस्तेन चके पार्थेन दुर्धरः । तदा पार्थमुवाचेति कुमारो रूप्यसंज्ञकः ॥१५६ । सुलक्षणान्यायपक्षं कुरुषे किं वृथा यतः । परकन्याहरो विष्णुः परद्रव्याभिलाषुकः ॥१५७
बलभद्रसे कहा कि चक्रव्यूह कठिण है किस उपायसे उसका भेद होगा? इसका जल्दी आप विचार कौजिये । युद्धकी प्रतिज्ञा करनेवाला विष्णु अपने साथ तीन शूर योद्धोंको लेकर शत्रुके चक्रव्यूहमें गया
और उसने पर्वतको वज्र जैसे फोडता है वैसे चक्रव्यूहको फोड दिया ॥ १४७-१४८ ॥ उससमय जरासंध अतिशय क्रुद्ध हुआ और दुर्योधनादिक तीन महाशूरोंको शत्रुसमूहका नाश करनेके लिये उसने भेज दिया ॥ १४९ ।। उस महायुद्धमें अर्जुन दुर्योधनके साथ, रथनेमि विरूप्यके साथ और धर्मराज सेनापतिके साथ लडने लगे । हुंकार करनेवाले शूरयोद्धा तब अन्योन्यसे लडने लगे। हाथी, घोडे और रथोंको चूर्ण करनेवाले उन योद्धाओंने दीर्घकालतक युद्ध किया । जो शूर थे वे इस युद्धमें स्थिर रहे, परंतु भीरुलोगोंने पलायन किया। नृत्य करनेके लिये उद्युक्त हुए नारदादिक देवसमूहके साथ हर्षित हुए ॥ १५०-१५२ ॥ दुर्योधनने अर्जुनको कहा कि, “ हे पार्थ, मैंने तुझे अग्निमें भस्म किया था । तूं व्यर्थ क्यों गर्व धारण कर रहा है । तुझे लज्जा आनी चाहिये । मेरे आगे क्यों सज्ज होकर खडा हुआ है" ॥ १५३ ॥ दुर्योधनका वचन सुनकर प्रलायकालक मेघसमूहके समान गर्जना करनेवाला तथा विघ्नहारक ऐसे अर्जुनने जिसकी दोरी चमकन लगी है ऐसे धनुष्यका टंकार शब्द किया। धनंजयने बाणोंकी वृष्टिसे दुर्योधनको आच्छादित कर उसके धनुष्यकी डोरी तोड डाली । उन दोनोंके बीचमें जालंधर राजा लडने के लिये आया । उसके साथ अर्जुनने कठिन युद्ध किया । उससमय अर्जुनको विरूप्यकुमारने कहा कि “ हे सुलक्षण, तूने अन्यायका पक्ष व्यर्थ क्यों धारण किया हैं ? क्या कि, विष्णु दूसरोंकी कन्या हरण करनेवाला और परधनका आभिलाषी है।" उसका भाषण सुनकर भयंकर आकृति जिसकी हुई है ऐसा अर्जुन बोलने लगा कि, “ मैं अब तुझे यहां न्याय और अन्याय दिखाता हूं तूं सज हो जा" । ऐसा बोलकर जैसे धर्मसे
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