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एकोनर्विशं पर्व
४०१ दशाहेषु विशेषेण लज्यते बलकृष्णयोः । अनेनाशुचिदेहेन किं साध्यं दुःखकारिणा ॥१२४ सरसाहारतः पुष्टे शरीरे को गुणो भवेत् । इत्युक्त्वान्यरथे स्थित्वा मन्मथः संस्थितो रणे ॥ पुनस्तौ संगरे लग्नौ योद्धं संग्रामकोविदौ । वीक्ष्य क्षिप्तमना विष्णुरन्तरेऽस्थात्तयोरपि ॥१२६ तदा शल्यः समायासीत्खगः श्रीमगधेशिनः । ब्रुवन्निति हनिष्यामि शरैः शत्रून्समुद्धतान् ।। तदा खगेन संछन्नं निखिलं व्योम निश्चलम् । केनापि खलु नो दृष्टा रथसारथिकेशवाः॥१२८ शरपञ्जरमध्यस्था इव जीवितसंशयाः । नरैदृष्टाः क्षणे तस्मिन्कश्चिदायानरः परः ॥१२९ पथकल्पनया क्लुप्तो रुधिरारुणसत्तनुः । कम्पमानो नरोज्वोचत्केशवं कलितं नृपैः ॥१३० मुरारे किं वृथा युद्धं कुरुषे पाण्डवा हताः । दशाश्चिक्रिनाथेन बलभद्रो हतो रणे ॥१३१ अन्येऽपि रणशौण्डीरा जरासंधेन ते हताः । द्वारावती गृहीता च वैरिणा तव निश्चितम् ।। द्वारावतीपुरीस्थोऽपि सत्सिन्धुविजयो महान् । रणातिथ्येऽरिभिस्तूर्णं प्रेषितो यममन्दिरम्।। वृथा कि म्रियसे नाथ रणाद्याहि सुखेच्छया । मायानरवचः श्रुत्वा कुद्धः प्रोवाच माधवः॥ मयि जीवति को हन्तुं क्षमो रे दुष्ट यादवान् । इति तद्वचसा मायानरो नष्टः प्रबुद्धधीः ॥
आ गया। युद्धचतुर वे दोनों पुनः रणभूमिमें लडने लगे। इतने में क्षुब्ध चित्त होकर कृष्ण उन दोनोंके बीचमें आये ॥ १२१-१२६ ॥ तब मगधस्वामी-जरासंधके पक्षका शल्य विद्याधर “ मैं उद्धत शत्रुओंको बाणोंसे मारूंगा" ऐसा कहता हुआ रणभूमिमें आया। उस विद्याधरने संपूर्ण आकाश निश्चल बाणोंसे व्याप्त किया। किसीने भी रथ, सारथि और श्रीकृष्ण कुछ क्षणतक नहीं देखे। बाणसमूहके बीचमें वे ढक गये थे, मानो उनके जीवितमें संशय था। कुछ क्षणोंके अनंतर मनुष्योंने उनको देखा। उस समय कोई दूसरा आदमी श्रीकृष्णके पास आया। रक्तसे जिसका शरीर लाल दीखता है, जो कँप रहा है, पथकल्पनासे यानी मायाकल्पनासे जो रचा है ऐसा पुरुष राजाओंसे युक्त ऐसे केशवको बोलने लगा।
[ कृष्णने निर्भर्त्सना करनेसे मायापुरुषका और राक्षसका पलायन ] “ हे श्रीकृष्ण आप व्यर्थ क्यों युद्ध कर रहे हैं ? क्यों कि पाण्डव तो मारे गये हैं। समुद्रविजयादिदशाह चक्रनाथजरासंधने नष्ट किये हैं। बलभद्र युद्ध में मारा गया। अन्यभी रणचतुर योद्धा जरासंधने मारे हैं। आपकी द्वारावती नगरी शत्रुने निश्चयसे ग्रहण की है। द्वारावती नगरीमें रहनेवाले महान् सिन्धुविजय-समुद्रविजय भी रणके अतिथिसत्कारमें शत्रुओंने शीघ्र यममंदिरको भेज दिये हैं। हे नाथ
आप व्यर्थ क्यों मरते हैं। सुखकी इच्छासे आप रणसे चले जाइए।" इस प्रकार मायापुरुषका वचन सुनकर करुद्ध होकर श्रीकृष्ण कहने लगे- “ हे दुष्ट मेरे जीते रहते हुए यादवोंका घात करनेके
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बकेशवः। .
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