________________
एकोनविंशं पर्व
३९९ अपृथ्वीयत द्योभागः सैन्योत्थरेणुसंचयैः । अराहूयत सूर्योऽपि स्थगित छत्रसद्ध्वजैः॥ रेणुना तमसेवाशु तदा व्याप्तं रणाङ्गणम् । तूर्यनादच्छलात्सैन्यानीत्युवाच महाहवः ॥१०२ यात यात रणात्सैन्या भवतां तूर्णमारकात् । इत्येवं वारिता योधा युद्धार्थे धृतिमाययुः॥ जरासंधः स्वसैन्येऽस्मिश्चक्रव्यूहमकारयत् । तार्क्षध्वजः स्वसेनायां तार्थव्यूहमरीरचत् ॥ घोरान्धकारिते सैन्ये तयो रेणुभिरुत्थितैः । कोकयुग्मानि सूर्यास्तशङ्कया नीडमाश्रयन् ।। ध्वाङ्क्षारयो निशां मत्वा पूत्कुर्वाणा भटखरान् । उत्तस्थुरनुकुर्वन्त इव घस्रेऽपि संगरम् ॥ निष्कास्यासीन्स्वयं स्यन्ति सुभटाः सुभटान्रणे । कुन्ताग्रेण च कृन्तन्ति मृतॊ वल्लीगणानिव गर्जन्तो गर्जघातेन घ्नन्ति केचिद् घनानिव । वायवोत्र विपक्षाणां हृदयानि मदावहाः॥ छित्त्वा कुम्भस्थलान्याशु कुम्भिनां ककुभः पराः । कुङमेनेव कुर्वन्ति रक्तास्तद्रक्तधारया ॥ तदा चक्रिबलेनाशु संभग्नं वैष्णवं बलम् । यथा जलप्रवाहेण ज्वलनो ज्वालयन्परान् ॥११० तदा शम्बुकुमारोऽपि धीरयन्धारयन्निजान् । भटान्परान्विभज्याशु रणं कर्तुं समुद्यतः ॥१११ क्षेमविद्धः सुसंनद्धः खेचरः शम्बभूभुजा । युध्यमानो रथत्यक्तः कृतो भूमौ पलायितः ॥ तावदन्यः समुत्तस्थे खगो विद्याविशारदः । योद्धं शम्बेन निस्त्रिंशैारितोऽपि पलायितः ।।
मानो इस प्रकार बोलने लगा। हे सैनिकगण आपको शीघ्र मारनेवाले इस रणाङ्गणसे आप शीघ्र निकल जाओ ऐसा कहकर मानो निषेधे गये योद्धाओंने युद्धके लिये संतोष धैर्य धारण किया ॥ १०१-१०३ ॥ जरासन्धने अपने सैन्यमें चक्रव्यूहकी रचना की। और गरुडध्वज श्रीकृष्णने अपनी सेनामें गरुडन्यूहकी रचना की। ऊपर उठी हुई धूलिसे उन दोनों राजाओंका सैन्य घोर अंधकारसे व्याप्त होनेपर सूर्यके अस्त की शंकासे कोकपक्षिओंके युगलने अपने घोसलोंका आश्रय लिया। घुघूपक्षी दिनको-रात्री समझकर पूत्कार करनेवाले मानो-भटोंके स्वरोंका अनुकरण करते हुए दिनमें भी इतस्ततः उडने लगे ॥ १०४-१०६॥ कोषसे तरवार बाहर निकाल कर शूर पुरुषसुभटोंको स्वयं मारने लगे । तथा-भालेकी नोकसे वल्लिसमूहके समान शत्रुके मस्तक काटने लगे। गर्जना करनेवाले कई उन्मत्त भट वायु जैसे मेघोंको नष्ट करता है वैसे गर्जनाके आघातसे शत्रुओंके हृदय मारते थे। हाथियोंके गण्डस्थल शीघ्र छेदकर उनकी रक्तकी धारासे कोई भट पुरुष उत्तम दिशाओंको मानो केशरसे रंगाते हैं ॥ १०७-१०९॥ उस समय चक्रवर्ती-जरासंधके सैन्यने विष्णुका बल भग्न कर दिया। जैसे वस्तुओंको जलानेवाला अग्नि जलप्रवाहसे शांत किया जाता है ॥११० ॥ उस समय अपने वीरोंको धीर देनेवाला और धारण करनेवाला शंबुकुमार भी शत्रुसैन्यको भग्न कर युद्ध करनेके लिये उद्युक्त हुआ। शंबुकुमारके साथ क्षेमविद्ध विद्याधर लडनेके लिये उद्युक्त हुआ। लडते समय शंबुकुमारने उसे रथहीन कर दिया तब वह भूमिपर आकर भाग गया। इतनेमें विधाचतुर दूसरा विद्याधर शंबके साथ लडनेके लिये उद्युक्त हुआ परंतु वह भी शंबुकुमारस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org