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एकोनविंशं पर्व स्थलीकुर्वञ्जलं रम्यं जलीकुर्वन्स्थलं बलम् । चचाल चालयन्कुल्यानचलानचलासमम् ॥७८ रणोत्थरेणुना व्याप्तं पुष्करं सूरहारिणा । चतुरङ्गबलेनापि भूतलं विपुलं खलु ॥७९ आतोद्यवृन्दनादेन दिशां वृन्दं विजृम्भितम् । दिग्गजाः सज्जिताः सर्वेऽभूवन्सग हितैः॥ अगण्या ध्वजिनी धौर्या यादवीया महोदया । कुरुक्षेत्रबाहि गे स्थापिता यदुनायकैः ॥८१ तदा मागधसत्सैन्ये दुर्निमित्तानि निश्चितम् । अजायन्त जयाभावसूचकानि पुनः पुनः॥ रवर्ग्रहणमाभेजे व्योम्नि विश्वभयावहम् । वारिदैर्वारिधाराभिानशे तस्य वाहिनी ।।८३ ध्वाङ्क्षा ध्वजेषु पूर्वाह्ने रटन्ति रविसम्मुखाः। गृध्राः क्रुद्धाःस्थिता दृष्टाछत्राद्युपरि दुर्धराः॥ दुनिमित्तानि संवीक्ष्य विचक्षणं क्षणावहम् । मन्त्रिणं प्राह दुर्योध्यो दुर्योधनमहीपतिः ॥८५ उन्मील्यन्ते महामन्त्रिन्दुर्निमित्तानि भूरिशः । सोऽवोचत्कुरुक्षेत्राख्यमिदं किं न श्रुतं त्वया सर्व गिलिष्यति क्षेत्रं तिमिगिल इवोन्नतम् । पुनः स कौरवोऽभाणीन्मन्त्रिन्ख्याहि ममेप्सितम् विपक्षवाहिनी मन्त्रिन्कियन्मात्राभिमन्यते । योद्धारो युद्धसंनद्धाः कियन्तः सन्ति सनराः स जगौ शृणु राजेन्द्र ये नृपा बलसंकुलाः । दाक्षिणात्याः क्षितीशाश्च तेऽभूवन्विष्णुसेवकाः।।
साथ कम्पित करता हुआ वह सैन्य प्रयाण करने लगा। रणभूमिसे उठी हुई और सूर्यको आच्छादित करनेवाली धूलीसे आकाश व्याप्त हुआ तथा चतुरंग-सैन्यसे विशाल भूमितल निश्चयसे व्याप्त हुआ। वाद्यसमूहके नादसे दिशाओंका समूह बढ गया अर्थात् प्रतिध्वनियुक्त हो गया। सर्व दिग्गज मेघगर्जनाके समान गर्जनाओंसे सज्ज हुए ।। ७८-८० ॥ यादवोंके नायकोंने-अर्थात् यादवराजाओंने महावैभवशाली, श्रेष्ठ और असंख्यात ऐसा अपना सैन्य कुरुक्षेत्रके बाह्यभागमें स्थापित किया ॥ ८१ ॥ ..[जरासंधके सैन्यमें दुनिमित्त हुए। ] उस समय मगधपति जरासंधके सैन्यमें निश्चित अनेक दुर्निमित्त हुए। वे सब जयके अभावको बार बार सूचित करते थे। आकाशमें सूर्यको विश्वको भय उत्पन्न करनेवाला ग्रहण हुआ। मेघोंने जलधाराओंसे जरासंधकी संपूर्ण सेना व्याप्त की। प्रातःकालमें दिनके पूर्व-भागमें कौवे ध्वजपर बैठकर सूर्यके प्रति अपना मुख कर शब्द करने लगे। दुर्धर
और क्रोधयुक्त ऐसे गीधपक्षी छत्रादिकोंपर बैठे हुए दीखने लगे ॥ ८२-८४ ॥ जिसके साथ युद्ध करना कठिन है ऐसे दुर्योधनराजाने ऐसे दुनिमित्त देखकर चतुर और आनंदयुक्त मंत्रीको बुलाकर हे महामंत्रिन् , ये अनेक दुनिमित्त क्यों प्रगट हो रहे है ? ऐसा प्रश्न पूछा। मंत्रीने कहा कि “हे राजन्, क्या आपने नहीं सुना है ? यह उन्नत कुरुक्षेत्र · तिमिगिल' नामक मत्स्यके समान सबको गिलनेवाला है। पुनः दुर्योधन राजाने ‘हे मंत्रिन् , मैं जो चाहता हूं वह बताओ। हे मंत्रिन् , शत्रुकी सेना कितनी है ? युद्ध करनेवाले सज्जन योद्धा कितने हैं ॥ ८५-८८ ॥ मन्त्री कहने लगा कि " हे राजेन्द्र आप सुने, बलयुक्त जो दक्षिणदेशोंके राजा हैं वे सब विष्णुके सेवक हुए हैं। अथवा रणसे
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