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पाण्डवपुराणम् निवृत्ते संगरे नूनं राज्यं दास्यामि कौरवम् । पाण्डवेभ्यः प्रचण्डेभ्य इति त्वं याहि संगराव।। इत्युक्तो निर्गतो दूतो जरासंध सकौरवम् । गत्वा नत्वा स विज्ञप्ति चर्करीति स्म चक्रिणम् ॥ संधिं कुरु जरासंध यादवैः समहोदयः । अन्यथाकर्णय त्वं हि जिनोक्तं सत्यसंयुतम् ॥६९ केशवाद्भविता तेत्र पश्चता परमाहवे । गाङ्गेयस्य गुरो यं खण्डनं तु शिखण्डिनः ॥७० धृष्टार्जुनेन धृष्टेन द्रोणस्य मरणं मतम् । युधिष्ठिरेण शल्यस्य भीमाद्दर्योधनस्य च ॥७१ जयद्रथस्य पार्थेशादभिमन्युकुमारतः । कुरुपुत्रान्मृतान्विद्धि विधिचेष्टा नृपेशी ॥७२ इति यद्गदितं सद्यो मया निश्चिनु निश्चितम् । सत्यं न चान्यथाभावं भजते मगधाधिप ॥७३ इत्युक्त्वा निर्गतस्तस्माद् ध्रुवं द्वारावतीं पुरीम् । गत्वा नत्वा हृषीकेशमवोचत वचोहरः।।७४ देव तद्वाहिनी प्राप्ता कुरुक्षेत्रं सुदारुणम् । कर्णो नायाति वैकुण्ठं संकटे समुपस्थितः ॥७५ त्वया देव प्रगन्तव्यं कुरुक्षेत्रे विचित्रिते । शत्रुभिस्तत्र योद्धव्यं त्वया योधैर्महारणे ॥७६ निशम्येति तदा विष्णू रणातोद्यप्रणोदितः । पाञ्चजन्यप्रणादेन ययौ धुन्चन्नभोऽङ्गणम् ॥७७
समय तू रणसे अपने स्वामीके पास जा।" इस प्रकार दूतको कर्णने कहा । तदनंतर दूत कौरवोंके सहित जरासंधके पास गया। चक्रवर्तीको नमस्कार कर उसने विज्ञप्ति की--" हे राजन् जरासंध, आप महा उदयशाली यादवोंके साथ संधि कीजिए। यदि संधि करनेकी इच्छा न होगी तो सत्यसे संयुक्त जिनवचन सुनिए । “ इस महायुद्धमें इस कुरुक्षेत्रमें केशवसे आपकी मृत्यु होगी। तथा शिखण्डीसे भीष्माचार्यकी मृत्यु होगी और धृष्ट धृष्टार्जुनसे द्रोणाचार्यका मरण होगा ॥ ६१-७० ॥ युधिष्ठिरके हाथसे शल्यका, भीमसे दुर्योधनका, जयद्रथका अर्जुनराजासे और अभिमन्युकुमारसे दुर्योधनादिकौरवोंके पुत्रोंका मरण होगा ऐसा समझिए। हे राजा, ऐसी दैवचेष्टा है। हे राजा, मैंने जो इस समय कहा है, वह निश्चित सत्य है ऐसा निश्चय कीजिए। हे मगधाधिप, जो सत्य है वह अन्यथारूप कदापि नहीं होगा।" ऐसा बोलकर दूत वहांसे निकलकर द्वारावती नगरीको आया और विष्णुको नमस्कार कर उसने कहा- " हे देव श्रीकृष्ण, अतिशय भयंकर ऐसे कुरुक्षेत्रपर जरासंधका सैन्य आकर पहुंचा है, कर्णराजा युद्धस्थलमें पहुंचा है। वह अपने पास आना नहीं चाहता है। हे देव, विचित्र कुरुक्षेत्रमें आपको जाना होगा वहां शत्रुओंके साथ महारणमें योद्धाओंके द्वारा लडना होगा।" दूतका भाषण सुनकर रणवाद्योंसे प्रेरित विष्णु पांचजन्य नामक शंखके शब्दसे आकाशाङ्गणको कंपित करता हुआ प्रयाण करने लगा ॥ ७१-७७ ॥ सुंदर जलको स्थल करता हुआ और स्थलको जल करता हुआ केशवका सैन्य प्रयाण करने लगा, तथा कुलपर्वतोंको पृथ्वीके
१ ग स्वविज्ञप्ति।
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