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एकोनविंशं पव दुर्योधनधरेशेन दुःशासनमहीभुजा । दुर्मर्षणेन दुर्धर्षणेन कलिङ्गभूभुजा ॥५५ - एवमन्यैर्महीपालैः कुरुक्षेत्रमगान्नृपः । कम्पयन्वसुधां सर्वां पादभारेण निर्भरम् ।।५६ तदाकर्ण्य नृपाः केचित्पूजयन्ति स्म देवताः । अहिंसादिव्रतान्यन्ये जगृहुर्गुरुसंनिधौ ॥५७ मुश्चताशु तनुत्राणं गृह्णीतासिलतां शिताम् । आरोपयन्तु चापौघान् संनयन्तां च सद्गजाः॥ विधीयन्तां सुगन्धर्वा बद्धपर्याणपावनाः । भुञ्जन्तां भोगवस्तूनि युज्यन्तां वाजिभी रथाः ।। एवं केचिजगुर्भूपा भृत्यान्वस्वाधिकारिणः । शस्त्रौधग्रहणोधुक्तान्कुर्वन्तो वित्तदायिनः ॥ केशवस्य तदा दूतः कर्णाभ्यर्ण समाप्य च । नत्वा तं भक्तितोऽवोचद्विज्ञाप्यं श्रूयतामिति ।। यद्युक्तं तद्विधातव्यं कर्ण संकण्येतां क्वचित् । भविता केशवश्चक्री नान्यथा जिनभाषितम् ॥ कुरुजाङ्गलराज्यं त्वं गृहाण सकलं नृप । पाण्डोः पुत्र पवित्रात्मन् कुन्त्यां च भवदुद्भवः ॥ भ्रातरः पाण्डवाः पञ्च तत्रागच्छ ततस्त्वकम् । निशम्येति जगौ कर्णो दूताकर्णय मद्वचः॥ अधुना गमनं नैव युक्तं मे न्यायवेदिनः । न मुञ्चन्ति नृपा न्यायं रणे च समुपस्थिते ॥६५ रणे याते न मुञ्चन्ति मा भूपं सुसेवितम् । मुञ्चन्ति चेत्कदाचिच्चान्यायोऽयं नरनिन्दितः
पैरोंके आघातसे सर्व पृथ्वीको कंपित करता हुआ जरासंधराजा कुरुक्षेत्रको गया ॥ ५३-५६ ॥ जरासंधराजा कुरुक्षेत्रपर आया है ऐसा सुनकर कई राजा देवताओंकी पूजा करने लगे। अन्य राजाओंने गुरुके पास अहिंसादिव्रतोंका ग्रहण किया ॥ ५७ ॥ कई राजाओंने अपने अधिकारी भृत्योंको धन देकर शस्त्रसमूह ग्रहण करनेमें उद्युक्त किया और वे उनको इस प्रकार कहने लगे"हे भृत्यों, तुम अपने शरीरके रक्षण की परवाह मत करो, शीघ्रही तीक्ष्ण तरवार अपने हाथमें लो। अपने धनुष्य दोरी चढाकर सज्ज करो। अपने हाथी झूल आदिकोंसे सज्ज करो। भोगवस्तुओंका सेवन करो। रथोंको घोडे जोडकर सज्ज करो " ॥ ५८-६०॥
[कृष्णके दूतका कर्णके साथ भाषण ] उस समय केशवका दूत कर्णके पास आया और उसे भक्तिसे नमस्कार कर उसने कहा- “ मेरी विज्ञप्ति सुनिए । हे कर्णराज, जो योग्य है वह कीजिए । हे कर्ण, सुनिए केशव चक्रवर्ती होगा ऐसा जिनेश्वरका वचन मिथ्या नहीं होगा हे कर्ण, आप सम्पूर्ण कुरुदेशका राज्य ग्रहण कीजिए। आप पाण्डुराजाके पुत्र हैं आपकी उत्पत्ति कुन्तीमातासे हुई है। आप पवित्रात्मा है। युधिष्ठिरादिक आपके पांच भाई हैं। इसलिये आप उनके पास आइए।" दूतका ऐसा भाषण सुनकर कर्णने कहा कि 'हे दूत मेरा भाषण तू सुन' न्याय जाननेवाले मुझे इस समय पाण्डवोंके पास जाना योग्यही नहीं है। रण समीप आनेपर राजा न्यायका त्याग नहीं करते हैं और रण समाप्त होनेपर जिसकी उत्तम सेवा की है ऐसे अपने स्वामिरूप राजाको नहीं त्यागते हैं। यदि कदाचित् छोडेंगे तो जिसकी मानव निंदा करते हैं ऐसा यह अन्याय होगा। जब युद्ध समाप्त होगा तो म कौरवोंका राज्य पाण्डवोंको दूंगा इसलिये इस
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