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एकोनविंशं पर्व जरासंधं समापासौ वाहिन्या कौरवाग्रणीः । सुरापगाप्रवाहो वा सागरं सर्वतोऽधिकम् ॥३६ ततो मागधभूपेन मानितो बहुमानतः । कर्णेन कौरवः साकं भानुना किरणौघवत् ॥३७ पुनः संप्रेषयामास चक्री दूतं सुयादवान् । स दूतस्तत्र विज्ञप्तिमकरोदेत्य सत्वरम् ॥३८ . आज्ञापयति चक्रीशो भवतो यादवान्प्रति । त्यक्त्वा देशं भवन्तोत्र कथं तस्थुमहार्णवे ॥३९ समुद्रविजयो धीमान् वसुदेवोऽपि मत्प्रियः । वञ्चयित्वा निजात्मानं कथं प्रच्छन्नतां गतौ।। यूयं सेवध्वमत्राहो विगर्वाः सर्वतश्श्युताः । चक्रीशचरणद्वन्द्वं सर्वसातप्रदायकम् ॥४१ . श्रुत्वा बली बलः कुद्धो जगादेति वचोहरम् । कोऽन्यश्चक्री हरि मुक्त्वा सेवको यस्य सागरः॥ तच्छुत्वा निजगादेति दूतो विस्फुरिताधरः । यद्भयेन भवन्तोत्र प्रविष्टाः सागरान्तरे ।।४३ तत्पादसेवने कोन दोषः स कथ्यतां मम । समागच्छति क्रुद्धोत्र धीरः श्रीमगधेश्वरः ॥ एकादशप्रमाख्याताक्षौहिणीभिः क्षितीश्वरः। भवद्गपहारं स करिष्यति हरन्पदम् ॥४५ पाण्डवः प्रकटोऽवोचच्छ्रुत्वा तद्वचनं खरम् । निस्सार्यतामयं दूतो जल्पाकश्च यदृच्छया ॥४६ वचोहरो वचः श्रुत्वा तस्य कुद्धो विनिर्गतः । आचख्याविति चक्रेशं यादवानां महोन्नतिम् ।।
पूर्ण पैदल भी चलने लगा। इस प्रकार चतुरंग बलके साथ वह कौरव उत्तम घोडोंके खुरोंसे उत्पन्न हुई धूलीसे संपूण आकाश आच्छादित करता हुआ प्रयाण करने लगा। जैसे गंगानदीका प्रवाह सबसे अधिकतासे समुद्रके पास जाता है वैसे कौरवोंका अगुआ दुर्योधन सन्यके साथ जरासंधके पास आया। तदनंतर मगधराजा जरासिंधने सूर्यके साथ किरणसमूहके समान कर्णके साथ दुर्योधनका बहुमानसे आदर किया ॥ ३३-३७ ॥ पुनः चक्रवर्तीने यादवोंके पास अपना दूत भेज दिया। शीघ्रही वह दूत द्वारिकामें आकर उनको विज्ञप्ति करने लगा। "हे यादवो, आपको चक्री आज्ञा देता है कि, आप लोग देशको छोडकर इस महासमुद्रमें कैसे रहते हैं ? धीमान् समुद्रविजय और मुझे प्रिय वसुदेव अपनी आत्माको वंचित करके कैसे गुप्त हो गये ? सर्व धनादिकोंसे च्युत होकर गवरहित हुए आप संपूर्ण सुख देनेवाले चक्रवर्तीके चरणयुगलकी सेवा करें" ॥३८-४१॥ बलवान् बलभद्र क्रुद्ध होकर दूतको इस प्रकारसे बोलने लगा- “ समुद्र जिसकी सेवा करता है ऐसे हरीको छोडकर अन्य कौन चक्रवर्ती है ? " ॥ ४२ ॥ जिसका अधरोष्ठ स्फुरित हुआ है ऐसा वह दूत बलभद्रका भाषण सुनकर बोला-" जिसके भयसे आप समुद्रमें प्रविष्ट हुए ऐसे जरासंधकी सेवा करनेमें कौनसा दोष है ? मुझे कहो। अब वह धीर मगधेश्वर यहां क्रुद्ध होकर आनेवाला है । ग्यारह अक्षौहिणीप्रमाण सेनाके साथ वह यहां आकर तुम्हारा निवासस्थान हरण करके तुम्हारा गर्व हरण करेगा ॥४३-४५॥ उस समय उसका वचन सुनकर युधिष्ठिरने तीव्र वचन कह दिया, कि मन चाहे कुत्सित. भाषण करनेवाले इस दूतको यहांसे हटादो ॥४६॥ युधिष्ठिरका ऐसा भाषण सुनकर वह दूत क्रुद्ध होकर वहासे निकल गया। और जरासंधके पास जाकर यादवोंकी महोन्नति
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