________________
૮૮
पाण्डव पुराणम्
धर्मेण लभते साख्यं धर्माद्राज्यं निराकुलम् । धर्माच्च सुधरा धीमन् धर्माद्वैरिगणात्ययः ॥ पुरुषंस्य विशुद्धिस्तु धर्मः साधर्मिकैर्मतः । मनोवचनकायानामकौटिल्यं विशुद्धता || १८९ क्रोध लोभसुगर्वाणां त्यागो हि वृष उच्यते । अतस्तांस्त्वं परित्यज्य कुरु धर्मे महामतिम् ॥ यदि वाञ्छसि स्वच्छत्वं स्वेच्छया वत्स पाण्डवान् । आकार्य विनयेनाशु देहि देशार्धमुत्तरम् ॥ श्रुत्वा दुर्योधनः क्रुद्धः समवादीद्धदा दधत् । आमर्षं हर्षनिर्मुक्तो विदुरं विदुरं सदा ।। १९२ अहं ते भक्तिनिर्भिन्नस्त्वं वाञ्छसि च गौरवम् । पाण्डवानां परं राज्यं ममाराज्यं विशेषतः । इत्युक्त्वा दुष्टवाक्येन दूतो निर्धाट्य संसदः । तेन निःसारितः प्राप पुरीं द्वारावतीं पराम् | नत्वा नृपांच कौन्तेयान्यादवांश्च वचोहरः । यथावत्सर्ववृत्तान्तं न्यवेदयत्स कार्यवित् ॥ १९५ राजन्न कुर्वते संधिं कौरवाः कृतकिल्बिषाः । न तुष्टास्ते च तिष्ठन्ति भवतामुपरि स्फुटम् ।। तच्छ्रुत्वा संजगौ वाक्यं पाण्डुपुत्रः पवित्रवाक् । अस्माभी रक्षिता नीतिरर्यशोऽपि निवारितम् ।। तदर्थं प्रेषितो दूतो येनानीतिर्न जायते । इत्युक्त्वा पाण्डवा यातुं यादवैस्तान्समुद्ययुः ||१९८ तावदन्यकथासँगः श्रूयतां सावधानतः । ज्ञायते येन सद्विष्णुप्रतिविष्णोः सुखासुखम् ॥१९९
क्या उपाय करूं कहिए ? आज पूर्ण राज्यका उपभोग लेनेका उपाय क्या है मुझे कहिए ।" विदूर उस समय कहने लगा- “ हे दुर्योधन धर्मसे वैरिसमूहका नाश होता है । मनुष्य के परिणामोंकी जो निर्मलता उसे विशुद्धि कहते हैं और वह धर्म है और साधर्मिकोंके साथ वह विशुद्धता होना चाहिये । मनमें, वचनोंमें और शरीरमें जो कुटिलता-- कपटका नहीं होना है उसे विशुद्धि कहते हैं । क्रोध, लोभ और गर्वका त्याग करना धर्म कहा जाता है । इस लिये ऐसे क्रोधादि अशुभ भावोंको तू छोड दे और धर्म में अपने मनको स्थापित कर । यदि तू मनकी स्वच्छताको चाहता है तो है वत्स, पाण्डवोंको विनयसे बुलाकर उनको आधा देश अवश्य दे । " ।। १८७-१९१ ॥ श्रीविदुरका भाषण सुनकर हृदयमें क्रोधको धारण करता हुआ हर्षरहित दुर्योधन, विद्वान् विदुरको कहने लगा कि " हे तात मैं आपकी भक्ति से सहित हूं और आप पाण्डवोंके गौरवको चाहते हैं, आप पाण्डबौंको राज्य दिलाना चाहते हैं और मुझे वह नहीं मिले ऐसी इच्छा रखते हैं " ऐसे दुष्ट वाक्य बोलकर उसने दूतको सभासे निकाल दिया । उसके द्वारा निकाला गया दूत वैभवशाली द्वारावतीको आया, उसने पाण्डवोंको और कार्यज्ञ यादवनृपोंको नमस्कार कर संपूर्ण वृत्तान्त कहा ॥। १९२१९५ ॥ दूतने कहा कि " हे राजन्, जिन्होंने पाप किया है ऐसे कौरव संधि नहीं करते हैं यह स्पष्ट हैं वे आपसे संतुष्ट नहीं है । " दूतका भाषण सुनकर पवित्र वचनवाले धर्मराज बोले, कि हमसे नीतिपालन किया गया है और अकीर्ति भी हटायी गयी है । अनीति नहीं हो जावे इस • हेतुसे हमने दूत भेजा था। " ऐसा बोलकर यादवोंको साथ लेकर पाण्डव कौरवोंपर आक्रमणके लिये उद्युक्त हुए || १९६ - १९८ ।। इस विषय में अन्यकथाका प्रसंग सावधान होकर हे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org