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अष्टादशं पर्व
३८७ तद्वक्तुं कौरवाणां हि कः क्षमो जगतीतले । वयं जतुगृहे क्षिप्ता ज्वालिता तैश्च छमना॥१७६ गृहत्विा द्रौपदीकेशान्गृहानिष्कासिताः शठैः । मुरारिस्तद्वचः श्रुत्वा रसनां दशनान्तरे ॥ स्थापयित्वा जगादेवं निःप्रमादो महामनाः । दुर्योधनकृति पार्थ प्रेक्षस्व कृतसत्क्षतिम् ।। निबन्धुत्वं च दुष्टस्याकुलीनत्वं नयच्युतिम् । इत्युक्त्वा मन्त्रयित्वा च पाण्डवैर्विष्टरश्रवाः ।। कार्य विचार्य वेगेन प्राहिणोच्च वचोहरम् । क्रमेणाक्रम्य भूपीठं स जगाम सुहस्तिनम् ।। गत्वा नत्वा नृपं नीत्या बभाण कौरवेश्वरम् । द्वारकातः समायातो दूतोऽहं विधिवेदकः ॥ राजन्नत्र महीपीठे न जेयाः पाण्डवा रणे । वृथा किं क्रियते वंशच्छेदः स्वस्य महीपते ॥ पाण्डवानां तु साहाय्यं करोति मधुमर्दनः । विराटो विकटो भूमौ द्रुपदः सरथः सदा ॥ प्रलम्बनः सदा येषां विघ्नौघपरिघातकः । दशाश्चिाहणां प्राप्ताः प्रद्युम्नाद्याः सुपक्षिणः ॥ तैः समं समरे स्थातुं किं भवान्क्षणमर्हति । मानं विमुच्य भीतात्मन्शुद्धसंधि विधेहि भोः॥ अर्धार्धभूविभज्याशु द्वाभ्यां भोज्या सुभाग्यतः । दूतोक्तमेवमाकर्ण्य विदुरं कौरवोऽवदत् ॥ ताताध किं प्रकर्तव्यं मया राज्यं प्रभुज्यते । पूर्ण तूण कथं ब्रूहि प्रोवाच विदुरस्तदा ॥
वह तिरस्कार करने लायक शब्दोंसे अवर्णनीय और निश्चयसे गणनाके अगोचर है। कौरवोंके अपराध भी कहनेके लिये इस जगतमें कौन समर्थ है ? उन लोगोंने कुछ निमित्तसे अर्थात् कपटसे हमको लाक्षागृहमें जलाया है । तथा द्रौपदीके केश पकडकर उन शठोंने उसे घरसे बाहर किया।" प्रमादरहित और महामना मुरारिने-कृष्णने अर्जुनका वचन सुनकर दांतोंके बीचमें जिह्वा रखकर ऐसा भाषण किया- “ हे अर्जुन, सज्जनोंका नाश करनेवाली यह दुर्योधनकी कृति है। दुष्ट दुर्योधनका स्नेहरहितपना, अकुलीनपना और न्यायभ्रष्टता तो देखो।" ऐसा बोलकर पाण्डवोंके साथ श्रीकृष्णने विचार करके कार्यको निश्चित किया और वेगसे दूतको भेज दिया। वह क्रमसे भूतलको आक्रमण कर हस्तिनापुरको गया। राजा दुर्योधनको उसने नमस्कार कर नीतिसे कहा कि " द्वारकासे आया हुआ कार्यको जाननेवाला मैं दूत हूं ॥ १७४–१८१ ॥ दूतने ऐसा भाषण किया--- "हे राजन् , इस भूतलपर आप युद्धमें पाण्डवोंको नहीं जीत सकते हैं। इसलिये आप अपने वंशका व्यर्थ नाश क्यों करते हैं ? मधुमर्दन-श्रीकृष्ण पाण्डवोंको साहाय्य करेंगे। इस भूतलपर विकट विराट, रथोंसहित द्रुपदराजा, तथा बलभद्र ये हमेशा पाण्डवोंके संकटोंको नष्ट करनेवाले हैं । आदरणीय दशाई राजा, तथा सुपक्ष-पाण्डवोंका पक्ष धारण करनेवाले प्रद्युम्नादिक राजा पाण्डवोंके पक्षमें हैं। आप युद्धस्थलमें उनके साथ क्या एक क्षणतक भी युद्ध कर सकेंगे ? इसलिये भीतिखभावको धारण करनेवाले आप मानको छोडकर शुद्ध संधि कीजिए।" आधा आधा विभाग कर आप दोनों पाण्डव और कौरवोंको भाग्यसे भूमिका उपभोग लेना चाहिये ।" ऐसा दूतका भाषण सुनकर दुर्योधन विदुरको कहने लगा ॥ १८२-१८६॥ “ हे तात आज मैं
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