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पाण्डवपुराणम् ततो हलधरो धीमान्विकुण्ठो विष्टरश्रवाः । प्रद्युम्नो भानुमुख्याच प्राप्तास्तत्र महीभुजः॥ धृष्टार्जुनः सुसज्जः सन्नूर्जस्वी स समाययौ । अखण्डाज्ञः शिखण्डी च भूपोऽपि परमोदयः।। एवमन्ये महानन्दाः सेन्दिरा रूपसुन्दराः । तत्रापुर्भूमिपास्तूर्ण मनोरथशताकुलाः ॥१६८ विवाहानन्तरं तत्र कियतो वासरान्नृपाः। स्थित्वा सन्मानिताः सर्वे वस्त्राद्यैः स्वपुरं ययुः॥ हरिहलधरेणामा अक्षौहिणीबलान्वितः । पाण्डवैः सह सत्प्रीत्या चचाल चञ्चलैस्त्वरा ॥१७० यादवाः स्वपुरे याताः कुन्त्या सह च पाण्डवैः। तत्र तस्थुः स्थिरं स्थैर्यादन्योन्यप्रीतिमानसाः
अक्षौहिणीप्रमाणं किं वद गौतम सोऽवदत् ।। खं सप्ताष्टकयुग्माङ्का २१८७० दन्तिनो यत्र संमताः ॥१७२ तथा रथाश्च तावन्तः २१८७० खैकषट्पञ्चषड़याः ६५६१० ।
पत्तयः शून्यपञ्चत्रिनवशून्यैकसंमताः १०९३५० ॥१७३ तत्रैकदा जगादैवं दिवस्पतितनूद्भवः । देवकीनन्दनं नीत्या संनिर्जितबृहस्पतिः॥१७४ यस्याप्यपयशो लोके वरीवर्ति वरातिगम् । अवगण्यं वचोऽतीतं गणनातीतमञ्जसा॥१७५
गई। तदनंतर विद्वान् बलभद्र, सुज्ञ विष्णु, प्रद्युम्न, भानु इत्यादि अनेक राजा विराटनगरमें आये ॥१६३-६६॥ तेजस्वी प्रबल ऐसा धृष्टार्जुन-द्रुपदराजाका पुत्र और परमवैभववाला तथा अखण्ड आज्ञा जिसकी है ऐसा शिखण्डी राजा अभिमन्युके विवाहके लिये आये । इस प्रकारसे. अतिशय आनन्दयुक्त लक्ष्मसिंपन्न, स्वरूपसुन्दर और सैंकडो मनोरथोंसे परिपूर्ण ऐसे अनेक अन्य राजा शीघ्र वहां आये ॥ १६७-१६८ ॥ विवाहके अनन्तर विराटनगरमें कुछ दिनतक राजा रहे और वस्त्रादिकोंसे सम्मानित किये गये वे सब अपने अपने नगरको चले गये ॥ १६९ ॥ पाण्डव कृष्णके साथ द्वारिकानगरको चले गये । अक्षौहिणीप्रमाण सैन्यसे युक्त श्रीकृष्ण बलभद्र और चंचल पाण्डवोंके साथ अतिशय प्रीतिसे त्वरासे चलने लगे। यादव कुन्ती और पाण्डवोंके साथ अपने नगरकोद्वारिकाको चले गये। वहां अन्योन्यकी स्थिर प्रीतिसे वे दीर्घकालतक रहे ॥ १७०-१७१ ॥ हे गौतमप्रभो, अक्षौहिणी प्रमाण क्या है, कहो ऐसा श्रेणिकराजाने प्रश्न किया। तब गणधरने कहाजिस सैन्यमें शून्य, सात, आठ, एक और दो इतनी संख्यावाले हाथी हैं अर्थात् २१८७० इतने हाथी हैं। तथा रथोंकी संख्या भी उतनीही है, जिसमें शून्य, एक, छह, पांच छह, अंकके अर्थात् ६५६१० इतनी संख्या घोडोंकी है। पैदलोंकी संख्या शून्य, पांच, तीन, नउ, शून्य और एक है अर्थात् १०९३५० एक लाख नउ हजार तीनसौ पचास संख्याप्रमाण पैदल रहता है इस प्रकारसे सब मिलकर २१८७०० इतना अक्षौहिणी सैन्यका प्रमाण है ॥ १७२-१७३ ॥ द्वारकानगरीमें नीतिके चातुर्यसे जिसने बृहस्पतिको जीता है ऐसा इन्द्रका पुत्र एकदा देवकीनन्दनको श्रीकृष्णको इस प्रकार कहने लगा-- " इस दुर्योधनका अपयश भी जगतमें उत्तमताका उल्लंघन कर रहा है।
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