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वहां पहुंचकर भीमके छलपूर्ण कार्यके ज्ञात हो जानेसे उन्हें बहुत क्रोध हुआ। उन्होंने सौ योजन जाकर दक्षिण मथुरामें रहनेकी पाण्डवोंको आज्ञा दी और अभिमन्युके पुत्र परीक्षितको राज्यकार्यमें स्थापित किया।
द्वारिकादाह व पाण्डवदीक्षा नेमि जिनकी भविष्यवाणीके अनुसार मुनि द्वीपायनके निमित्तसे द्वारिकापुरीका दाह हुआ। जरतकुमारसे इस समाचारको ज्ञातकर पाण्डव वहां पहुंचे। यहां भस्मीभूत द्वारिकाको देखकर उन्हें अस्थिर भव-भोगोंसे विरक्ति उत्पन्न हुई। वे नेमि जिनेन्द्रके समवसरणमें गये । वहां उन्होंने नेमि प्रभुकी स्तुति कर उनसे धर्मोपदेश सुना। तत्पश्चात् अपने अपने पूर्वभवोंको पूछकर पांचों पाण्डवोंने दीक्षा ले ली । कुन्ती, सुभद्रा और द्रौपदीने भी राजीमती आर्यिकाके समीपमें संयम ग्रहण कर लिया । मुनि पाण्डव विहार करते हुए शत्रुञ्जय पर्वतपर पहुंचे । इसी समय वहां दुर्योधनका
१ द्रौपदीहरण और पाण्डवोंको दक्षिण मथुरा भेज कर परीक्षित्को राज्यकार्यमें प्रतिष्ठित करनेका यह कथानक हरिवंशपुराण (सर्ग ५४ ) में भी ठीक इसी प्रकारसे पाया जाता है । यहां यमुनाके स्थानमें गंगा नदीको पार करनेका उल्लेख है । यथा
नौमिर्गगां समुत्तीर्य तस्थुस्ते दक्षिणे तटे । व्यपनीता च भीमेन क्रीडाशैलेन नौस्तटी ॥ ५४-६५.
दे. प्र. पां. च. ( १७, ८५-१९४ ) में भी द्रौपदीहरण और पाण्डवोंके छलपूर्ण व्यवहार ( गंगापार जाना व नावको छुपाना ) से क्रोधित होकर उन्हें देशनिकाला देनेका वृत्त इसी प्रकारसे पाया जाता है। विशेषता इतनी है जब कृष्णने उन्हें देशनिकाला दिया तब पाण्डुने कुन्तीको द्वारिकापुरी भेजा था। कुन्तीने अवसर पाकर कृष्णसे निवेदन किया कि समस्त पृथिवी तो तुम्हारी है, फिर पाण्डव कहां रहे । तब कृष्णने कहा कि दक्षिण समुद्र में पाण्डुमथुरा नगरीका निर्माण करके वे वहां रहे । तब पाण्डवोंने परीक्षिलको राज्यमें प्रतिष्ठित कर वैसा ही किया ( १७, २२१-२२५)।
२ ह. पु. ६३, ४६-४८. दे. प्र. पां. च. १८, ३५५-३६७, ३ व्यासवाक्यं च ते सर्वे श्रुत्वार्जुनमुखेरितम् । राज्ये परीक्षितं कृत्वा ययुः पाण्डुसता वनम् ॥
विष्णुपुराण ५, ३८-९२, यहां सर्व यादवसंहारका कारण यादवकुमारोंकी वंचनासें क्रोधित हुए विश्वामित्रादि मुनियोंका शाप बतलाया गया है (वि. पु. ५, ३७, ६-१० )।
४ ह. पु. ६४, १४३-४४. उत्तरपुराण पर्व ७२तत्सर्वे पाण्डवाः श्रुत्वा तदायान्मथुराधिपाः । स्वामिबन्धुवियोगेन निर्विद्य त्यक्तराज्यकाः ॥ २२४ महाप्रस्थानकर्माणः प्राप्य नेमिजिनेश्वरम् । तत्कालोचितसत्कर्म सर्व निर्माप्य भाक्तिकाः ॥ २२५ स्वपूर्वभवसम्बन्धमपृच्छन् संसृतेर्भयात् । अवोचद् भगवानित्थमप्रतय॑महोदयः ॥ २२६ पाण्डवाः संयम प्रापन् सतामेषा हि बन्धुता । कुन्ती-सुभद्रा-द्रौपद्यः दीक्षां तां च परां ययुः ॥ २६४ निकटे राजिमत्याख्यगणिन्या गुणभूषणाः । तास्तिस्रः षोडशे कल्पे भूत्वाः तस्मात्परिच्युताः ।। २६५
तत्रोत्तीर्य गजेन्द्रेभ्यो राज्यचिह्वान्यपास्य ते । सपत्नीका प्रभुं धर्मघोषाख्यमुपतस्थिरे ॥ विज्ञा विज्ञापयत्नेनं ते निपत्य पदाम्बुजे । शिरो नः पावय स्वामिन् दीक्षादानात् स्वपाणितः ॥ भूत्वा भगवतो नेमेस्ततः स प्रतिहस्तकः । दक्षिणो दीक्षयामास मुनिः सप्रेयसीनमून् ।
दे. प्र. पां. च. १८, ११६-११८.
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