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पाण्डवपुराणम्
धनुस्त्वं धर धीरत्वं भज भव्य पितामह । अस्माकमथ युष्माकं यथा राज्यं भवेदिह ॥ गाङ्गेयस्तु तदा ज्यायां धनुरास्फालयन्ददौ । अष्टावष्टौ शराञ्शीघ्र मुमोच मदमेदुरः ॥ सुनासीरसुतस्तूर्ण चिच्छेद रथसारथी । गाङ्गेयस्य तदा क्रुद्धो गाङ्गेयो गर्विताशयः ॥१२२ युयुधाते महायोधौ मार्गणैस्तौ महाहवे । असाध्यौ खलु मन्वानौ सामान्यास्त्रैः स्वयं स्थितौ । उच्चाटनं महाबाणं सैन्योच्चाटविधायकम् । मुमोच मोहनं बाणं मोहयन्तं बलं गुरुः ॥१२४ तथा च स्तम्भनं बाणं स्तम्भयन्तं चमू पराम् । चक्रे स विफलान्सर्वान्बाणान्पार्थः परोदयः ।। सस्मार मानसे पार्थों वीतहोत्रसुपर्वणः । चचाल ज्वालयन्सोऽपि भूमिभूरुहसजनान् ॥१२६ गाङ्गेयस्तच्छरं मत्वा चिच्छेद निजविद्यया । अन्तरीक्षे क्षणं देवा ईक्षन्ते स्म तयो रणम् ॥ भीमानुजस्तु चिच्छेद गुरुवाणं बलोद्धतः । तयोर्मध्ये न कोऽप्यत्र पराजयत एव हि ॥१२८ यावद्धनंजयेनाशु धनुश्छिन्नं गुरोरपि । अन्तरे च तयोस्तावद्रोणाचार्यः समाययौ ॥१२९ अङ्कुशेन विनिर्मुक्तोऽनेकपो वा समुत्थितः । द्रोणो विद्रावयञ्शāस्तावत्पार्थेन संनतः ॥
हाथमें धनुष्य धारण कर धैर्यका आश्रय कीजिये जिससे आपका और हमारा यहां राज्य होगा। उस समय गाङ्गेय-पितामहने धनुष्यको दोरीपर चढाते हुए टंकार शब्द किया और मदपूर्ण होकर आठ आठ बाण शीघ्रही अर्जुनपर छोड दिये ॥ १२०-१२१ ॥ इन्द्रपुत्र अर्जुनने भीष्माचार्यके रथ और सारथि तोड डाले । तब गर्वयुक्त अभिप्रायवाले भीष्माचार्य कुपित हुए। दोनोंही ( अर्जुन और भीष्माचार्य) महायोद्धा उस महायुद्ध में बाणोंसे अन्योन्यपर प्रहार कर लडने लगे। परंतु सामान्य अस्त्रोंसे अन्योन्यको असाध्य समझकर युद्ध में ठहरे हुए उन्होंने दिव्यास्त्रोंसे युद्ध किया ॥ १२२-१२३ ॥ भीष्माचार्यने सैन्यका उच्चाटन करनेवाला उच्चाटन बाण, सैन्यको मोहित करनेवाले मोहन बाण और उत्तम सैन्यको स्तंभित करनेवाले स्तंभन बाण छोड दिये। परंतु उत्कृष्ट उन्नतिशाली अर्जुनने उन सब बाणोंको विफल कर दिया ॥ १२४-१२५॥ अर्जुनने उस समय मनमें अग्निदेवका स्मरण किया। वह देवभी जमीन, वृक्ष और मनुष्योंको जलाते हुए चलने लगा ।। १२६ ॥ भीष्माचार्यने अग्निबाणको समझकर अपनी विद्यासे उसका विच्छेद किया। उस समय क्षणतक आकाशमें देव उन दोनोंका युद्ध देखने लगे ॥१२७॥ बलसे उद्धत भीमानुजने-भीमके छोटे भाई अर्जुनने गुरुका बाण तोड डाला। उन दोनोंमें कोई भी पराजित नहीं हुआ। ॥१२८॥ जब धनंजयने गुरु भीष्माचार्यका भी धनुष्य छिन्न किया तब उन दोनोंके बीचमें द्रोणाचार्य आये ॥ १२९॥
[अर्जुनका द्रोण और अश्वत्थामाके साथ युद्ध ] अंकुशसे रहित हाथीके समान शत्रुओंको भगानेवाले द्रोणाचार्य जब युध्दके लिये आये तब अर्जुनने उनको नमस्कार किया। भीषण अर्जुनने कहा कि “ हे आचार्य आप मेरे महागुणवान् गुरु हैं। आप उत्तम नयनातिसे शोभ
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