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अष्टादशं पर्व तत्क्षणे विशिखेनासौ चकर्त वैरिमस्तकम् । विकर्णः क्रन्दनासक्तो जगाम यममन्दिरम् ॥ दधाव कौरवं सैन्यं वीक्ष्य विकर्णपातनम् । तदा तत्पृतनां पार्थो रुरोध रणसंगतः ॥१०९ निरुध्य निखिलं सैन्यं भानुपुत्रः पवित्रवाक् । पार्थमाकारयमास चमूसंचूर्णनोद्धरम् ॥११० सव्यसाची शुचा मुक्तो मुमोचतं हि मार्गणान् । कर्णोऽपि विफलीचक्रे ताशरान्संगरावहान् ।। त्रिभिर्बाणैस्तदा कर्णो विव्याध च धनंजयम् । त्रिभिश्च सारथिं केतुं त्रिभिस्त्रिभिश्च सद्रथम् ॥ क्रुद्धो धनंजयस्तावत्कर्ण विव्याध मार्गणैः । निपपात महीपृष्ठे कर्णो मूर्छामुपागतः ॥ कर्णमुत्सारयामास रथे कृत्वाथ कौरवः । तावद्दःशासनः प्राप्तो दुस्साध्यो युधि क्रुद्धधीः ॥ सहस्व मार्गणान्मेऽद्य ध्वनन्निति धनंजयम् । जघान शरघातेन दुःशासनो हि सद्धदि ॥ तदा धनंजयः क्रुद्धः पञ्चविंशतिमार्गणैः । जघान युवराजं तं कृतं मृतमिवोन्नतम् ।।११६ अन्ये ये रणमायान्ति ददाति तान्दिशो बलिम् । पार्थः समर्थसिद्धार्थः कृतार्थः परिपन्थिहत ॥ गाङ्गेयस्तु समायातो यो पार्थ प्रति त्वरा । तं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य पार्थोऽवोचत्पितामहम् ।। त्रयोदश सुवर्षाणि गमितानि मयाधुना । भ्रमता तव पादाब्जं प्राप्तं पुण्यवशादिह ॥११९ ,
रणमें अर्जुनने विकर्णके सैन्यको रोक लिया। संपूर्ण सैन्यको रोककर पवित्र वचनवाले कर्णने सैन्यका चूर्ण करने में समर्थ अर्जुनको युद्धके लिये बुलाया ॥ १०५-११० ॥ शोकरहित सव्यसाची अर्जुनने कर्णके ऊपर बाण छोडे और कर्णनेभी युद्धोचित उन बाणोंको विफल किया। उस समय तीन बाणोंसे कर्णने अर्जुनको विद्ध किया, तीन बाणोंसे सारथिको, तीन बाणोंसे केतु ध्वजाको और तीन बाणोंसे रथको विद्ध किया। तब क्रुद्ध हुए अर्जुनने कर्णको बाणोंसे विद्ध किया । वह मूछित होकर भूतलपर गिर पडा ॥ १११-११३॥
- [अर्जुन-भीष्म-युद्ध ] तब दुर्योधनने रथमें कर्णको रखकर रणभूमिसे बाहर निकाला और जिसकी बुद्धि कुपित हुई है ऐसे दुःसाध्य दुःशासनने युद्ध में आकर ' आज मेरे बाणको तुम सहन करो' ऐसा अर्जुनसे कहकर उसके हृदयपर बाणके आघात करने लगा। तब धनंजयने क्रुद्ध होकर पच्चीस बाणोंसे उन्नत युवराज दुःशासनको मानो मरा हुआ कर दिया । ११४-११६ ॥ समर्थ होनेसे जिसके कार्य सिद्ध हुए हैं, जो कृतकृत्य हुआ है तथा जिसने शत्रुओंको नष्ट किया है ऐसा अर्जुन जो कोई योद्धा रणमें आता था उसको दिशाओंका बलि बना देता था ॥ ११७॥ इसके अनंतर पार्थके साथ लडनेके लिये त्वरासे भीष्माचार्य आये । उनको तीन प्रदक्षिणा देकर अर्जुनने पितामहको कहा कि "हे पितामह भ्रमण करते हुए मैंने तेरा वर्ष समाप्त किये हैं अब पुण्यसे इस भूमितलपर आपके चरणों की प्राप्ति हुई है ॥ ११८-११९॥ “ हे पितामह आप
१ सिर्फ 'म' प्रतिमें यह श्लोक है।
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